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________________ में से उदयगत का क्षय होने से तथा अनुदित कर्मों का उपशम होने से उत्पन्न होता है । यह ज्ञान मनुष्यों व तिर्यंचों को होता है । अवधिज्ञान छ: प्रकार का बताया गया 1 है; 1. आनुगमिक 2. अनानुगमिक 3. वर्द्धमान 4. हीयमान 5. प्रतिपातिक 6. अप्रतिपातिक मनः पर्यव ज्ञान मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जानने वाला ज्ञान मनः पर्यवज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है, नारक व तिर्यंचों को नहीं । मनः पर्यवज्ञान दो प्रकार से उत्पन्न होता है - ऋजुमति और विपुलमति । 7 ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञान अधिक शुद्ध होने के कारण मन के सूक्ष्म परिणामों को भी जान सकता है। ऋजुमतिज्ञान उत्पन्न होने के बाद नष्ट हो जाता है, किन्तु विपुलमतिज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति तक बना रहता है। केवलज्ञान - जो साथ चलता है, • जो साथ नहीं चलता, - - 164 जो वृद्धि पाता है, जो क्षीण होता है, - जो एकदम लुप्त हो जाता है, जो नहीं होता । केवलज्ञान की प्राप्ति तक विद्यमान रहता है लुप्त — केवल शब्द का अर्थ एक या सहाय रहित है । ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट होने से ज्ञान के अवान्तर भेद मिट जाते हैं और ज्ञान एक हो जाता है, उसके पश्चात् इन्द्रिय या मन की भी आवश्यकता नहीं रहती है अतः वह केवल (अकेला) ज्ञान कहलाता है। भगवतीसूत्र में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि केवलज्ञानी इन्द्रियों से न देखते हैं व न जानते हैं । केवलज्ञान के दो भेद किये गये हैं- भवस्थकेवलज्ञान और सिद्धकेवलज्ञान। आगे इनके भेद - प्रभेद का विवचेन किया गया है। 18 परोक्ष ज्ञान नन्दीसूत्र में परोक्ष ज्ञान के दो भेद किये गये हैं; आभिनिबोधिक ज्ञान व श्रुतज्ञान । आभिनिबोधिकज्ञान आभिनिबोधिकज्ञान के दो भेद हैं- अश्रुतनिश्रित और श्रुतनिश्रित । अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान चार प्रकार का है; औत्पत्तिकी - क्षयोपशम भाव के कारण, शास्त्र अभ्यास के बिना ही सहसा जिसकी उत्पत्ति हो, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहते हैं । भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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