SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचविहे नाणे पण्णत्ते - तंजहा आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्ज्वणाणे केवलणाणे - ( मधुकर मुनि, 241 ) अर्थात् हम श्रमण निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के ज्ञान को मानते हैं- आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान व केवलज्ञान । उत्तराध्ययन" में केशी और गौतम के संवाद से यह स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्व और महावीर के शासन में आचार - विषयक कुछ मतभेद थे, किन्तु तत्त्वज्ञान में कुछ भी मतभेद नहीं था अन्यथा उसका उल्लेख प्रस्तुत संवाद में अवश्य होता । इस सम्बन्ध में मालवणिया जी ने लिखा हैआगमों में पाँच ज्ञानों के भेद-प्रभेद का जो वर्णन है, कर्मशास्त्र में ज्ञानावरणीय के जो भेद-प्रभेद का वर्णन है, जीवमार्गणाओं में पाँच ज्ञानों की जो घटना वर्णित है, तथा पूर्वगत में ज्ञानों का स्वतंत्र निरूपण करने वाला जो ज्ञानप्रवाद - पूर्व है, इन सबसे यही फलित होता है कि पंच- ज्ञान की चर्चा भगवान् महावीर ने नयी नहीं शुरु की है, किन्तु पूर्व परंपरा से जो चली आ रही थी, उसको ही स्वीकार कर आगे बढ़ाया है। स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने ज्ञान के विषय में पार्श्व की परंपरा में उल्लेखित पाँच ज्ञानों को ही स्वीकार कर विकसित किया है । 12 विकासक्रम की दृष्टि से जैनागमों में ज्ञानविभाजन की तीन भूमिकाएँ प्राप्त होती हैं । मालवणियाजी ने इस पर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। 13 प्रथमभूमिका - प्रथमभूमिका में ज्ञान को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है । यह विभाजन भगवतीसूत्र 14 में प्राप्त होता है । ज्ञान आभिनिबोधिक श्रुत अवधि 160 मनः पर्यव केवल अवग्रह ईहा अवाय धारणा सूत्रकार ने उक्त विभाजन का शेष वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र से पूर्ण करने की सूचना दी है। I द्वितीयभूमिका - द्वितीयभूमिका स्थानांग में प्राप्त होती है । यहाँ ज्ञान को प्रत्यक्ष व परोक्ष दो भेदों में विभक्त कर पाँचों ज्ञानों में से मति व श्रुत ज्ञान को परोक्ष के अन्तर्गत रखा तथा अवधि, मनःपर्यव व केवलज्ञान को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत रखा है। भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy