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________________ प्रवचनसार में परिहार करते हुए उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि अनन्तसुख, अनन्तज्ञान है। सुख और ज्ञान अभिन्न है। आत्मा व ज्ञान के अभेद की चर्चा कुंदकुंद द्वारा नियमसार' में करते हुए पुनः कहा गया है, व्यवहारिक दृष्टि से केवली सभी द्रव्यों को जानता है। पारमार्थिक दृष्टि से वह आत्मा को जानता है। आत्मा व ज्ञान के अभेद को स्वीकार करने पर उक्त वाक्य का यही अर्थ लिया जा सकता है कि केवली अपने ज्ञान (आत्मा) को जानता है। प्रश्न उठता है, अपने ज्ञान को किसी दूसरे ज्ञान की सहायता बिना कैसे जाना जा सकता है? इसका भी जैन-दर्शन में उत्तर देते हुए ज्ञान को दीपक की तरह स्व-पर प्रकाशक कहा है। अर्थात् ज्ञान अपने को जानता हुआ दूसरे पदार्थों को भी जानता है। ज्ञान का स्वरूप ज्ञान सत्य को जानने का साधन है। सत्य ज्ञेय है अतः जैनागम ग्रंथों में पहले ज्ञान को स्थान दिया गया है तत्पश्चात् ज्ञेय को। प्रवचनसार, अनुयोगद्वार, नंदीसूत्र आदि में पहले ज्ञान का ही प्रारंभ किया गया है। विभिन्न जैन ग्रंथों में ज्ञान की परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं। स्थानांगवृत्ति में कहा गया है जिसके द्वारा अर्थ जाने जाते हैं या अर्थ का ज्ञान किया जाता है, उसका नाम ज्ञान है।' स्थानांग की इसी वृत्ति में 'ज्ञाति' मात्र को ज्ञान कहा है। अनुयोगद्वार की मलयवृत्ति' में कहा है- 'जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाय अथवा जो निज स्वरूप का प्रकाशक है, वह ज्ञान कहलाता है।' आवश्यकनियुक्ति में ज्ञान की परिभाषा इस प्रकार दी गई है'यथावस्थित वस्तु के स्वरूप को जिससे जाना जाता है, उसे ज्ञान कहते हैं।' वस्तुतः जिसके द्वारा जाना जाता है तथा जो जानता है वह ज्ञान है अर्थात् ज्ञान जानने मात्र का साधन है।' __भगवतीसूत्र में ज्ञान की कोई व्यवस्थित परिभाषा तो नहीं मिलती है। उपयोग की चर्चा में उपयोग के दो भेद किये गये हैं; साकारोपयोग व निराकारोपयोग। साकारोपयोग ज्ञान है तथा निराकारोपयोग दर्शन है। ज्ञानवाद की विकास परंपरा जैन-परंपरा में पाँच ज्ञान की चर्चा भगवान् महावीर से पहले भी विद्यमान थी, जिसे भगवान् महावीर ने अपनी वाणी में ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। इस विषय में राजप्रश्रीयसूत्र में एक वृत्तांत मिलता है। पार्श्वपरम्परा के अनुयायी केशीकुमार श्रमण कहते हैं- एवं खलु पएसी अम्हं समणाणं निग्गंथाणं ज्ञान एवं प्रमाण विवेचन 159
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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