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________________ हैं। आचार्य तुलसी ने जैन सिद्धान्त दीपिका में 'कालाश्च' सूत्र द्वारा काल को द्रव्यरूप में स्वीकार किया है तथा लोक को छः द्रव्यों का समूह कहा हैषड्द्रव्यात्मको लोकः - (1.8)। कालद्रव्य के अस्तित्व की भिन्न-भिन्न मान्यताओं के संबंध में पं. सुखलाल 4 जी लिखते हैं कि प्रथम मत यह है कि समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि जो भी व्यवहार काल-साध्य हैं, वे सभी पर्याय-विशेष के संकेत हैं। पर्याय, जीव-अजीव की क्रिया-विशेष है, जो किसी भी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के बिना होती है, अर्थात् जीव-अजीव दोनों अपने-अपने पर्याय रूप में स्वतः ही परिणत हुआ करते हैं अतः जीव-अजीव के पर्याय-पुँज को ही काल कहना चाहिए। काल अपने-आप में कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। द्वितीय मत यह है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर होते हैं, उनकी गति और स्थिति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं, वैसे ही जीव और अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्तकरण रूप काल-द्रव्य को मानना चाहिए। मधुकर मुनि ने व्याख्याप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना में लिखा है कि उक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी नहीं, किन्तु सापेक्ष हैं। निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि से वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व ये काल के उपकारक हैं। इन्हीं के कारण वह द्रव्य माना जाता है। उसका व्यवहार पदार्थों की स्थिति आदि के लिए होता है। ___ऊपर काल के संबंध में आगमों से लेकर आधुनिक विद्वानों व आचार्यों के मतों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। उक्त विवेचन से यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि काल की स्वतंत्र सत्ता को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं रहा है। दिगम्बर परंपरा काल की स्वतंत्र द्रव्य सत्ता स्वीकार करती है जबकि श्वेताम्बर परंपरा में दो मत मिलते हैं एक मत काल को स्वतंत्र स्वीकार करता है तथा दूसरा मत उसे जीवाजीवात्मक रूप में स्वीकार करता है। वस्तुतः स्थानांग में जहां काल को जीव व अजीव रूप कहा है वहाँ तात्पर्य सिर्फ यही है कि जीव व अजीव दोनों ही काल से प्रभावित होते हैं लेकिन यहाँ काल की स्वतंत्र सत्ता का निषेध नहीं किया गया है। अन्य आगम उत्तराध्ययन जो कि सर्वाधिक प्राचीन आगम है काल की स्वतंत्र सत्ता को मानता है। प्रज्ञापनासूत्र व भगवतीसूत्र भी अद्धासमय 150 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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