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व्यर्द, आधार, व्योम, भाजन, अन्तरिक्ष, श्याम, अवकाशान्तर, अगम, स्फटिक
और अनन्त; ये सब तथा इनके समान और भी अनेक अभिवचन आकाशास्तिकाय के हैं। भगवतीवृत्ति' में इनके निर्वचन को भी समझाया गया है। आकाश के भेद
आकाश दो प्रकार का है लोकाकाश व अलोकाकाश। दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा-लोयाकासे य अलोयाकासे य - (2.10.10)। लोकाकाश व अलोकाकाश में अन्तर स्पष्ट करते भगवतीसूत्र में कहा गया है कि लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं, अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं, अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव हैं, वे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं। जो जीव के देश हैं, वे नियमत; एकेन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक के देश हैं। जो जीव के प्रदेश हैं, वे एकेन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक के प्रदेश हैं। जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के हैं- रूपी व अरूपी। रूपी चार प्रकार के हैं। स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश व परमाणु-पुद्गल। अरूपी के पाँच भेद हैं- धर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, नोअधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश व अद्धासमय आदि हैं। अलोकाकाश में न जीव हैं, न अजीव, न जीव के देश, न ही अजीव के प्रदेश। वह एक अजीव द्रव्य देश है। अगुरुलघु है तथा अनन्त कम सर्वाकाश रूप है। बृहद्रव्यसंग्रह में भी लोकाकाश व अलोकाकाश का भेद करते हुए कहा गया है कि धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल को जो अवकाश प्रदान करे वह लोकाकाश है तथा उस लोकाकाश से बाहर अलोकाकाश है। आकाश की उपयोगिता
भगवतीसूत्र में आकाश द्रव्य की उपयोगिता अवगाहना गुण के कारण मानी गई है। इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है आकाशद्रव्य जीवों व अजीवों का भाजनभूत होता है अर्थात् आकाश जीव-द्रव्यों व अजीव-द्रव्यों को आश्रय देता है। एक परमाणु से परिपूर्ण या दो परमाणु से परिपूर्ण एक आकाश प्रदेश में सौ परमाणु भी समा सकते हैं। सौ करोड़ परमाणु से परिपूर्ण एक आकाश प्रदेश में एक हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं । आकाशास्तिकाय का लक्षण अवगाहना रूप है।
उत्तराध्ययन45 में भी आकाश को सर्वद्रव्यों का भाजन कहा है। परन्तु यहां प्रश्न उठता है कि आकाश धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को तो अवगाहना देता है,
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन