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________________ नहीं चल सकती है। लोक व अलोक की सीमा का निर्धारण करने के लिए कोई स्थिर व व्यापक तत्त्व होना चाहिये। धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय ये दोनों ही तत्त्व व्यापक व स्थिर हैं तथा ये ही अखंड आकाश को दो भागों में बांटते हैं। यही लोक की प्राकृतिक सीमा है। ये दो द्रव्य जिस आकाश खंड में व्याप्त हैं, वह लोक है और शेष आकाश अलोक। ये अपनी गति, स्थिति के द्वारा सीमा निर्धारण के उपयुक्त बनते हैं। ये जहाँ तक हैं, वहीं तक जीव और पुद्गल की गति व स्थिति होती है। उससे आगे उन्हें गति एवं स्थिति का सहायक नहीं मिलता इसलिए वे अलोक में नहीं जा सकते। गति के बिना स्थिति का प्रश्न ही क्या? इससे उनकी नियामकता अधिक पुष्ट हो जाती है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय लोक-प्रमाण होने के कारण लोक-अलोक की विभाजक शक्ति का कार्य करते धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय की उपयोगिता न केवल लोक व अलोक की विभाजक शक्ति के रूप में उभर कर आती है वरन् लोक का जो आकार भगवतीसूत्र में बताया गया है उसके लिए भी वे ही उत्तरदायी हैं। भगवतीसूत्र 1 में लोक का आकार बताते हुए कहा गया है- लोक सुप्रतिष्ठिक (सकोरे) के आकार का है। यथा वह नीचे विस्तीर्ण है। मध्य में संक्षिप्त है, ऊपर ऊर्ध्व मृदंग के आकार का है। लोक का यह आकार धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय के कारण ही है। क्योंकि धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय कहीं पर संकुचित हैं तो कहीं पर विस्तृत । जहाँ धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय संकुचित हैं वहाँ लोक का आकार कृश तथा जहाँ धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय विस्तृत हैं, वहाँ लोक का आकार विस्तृत है। आकाश एक अखंड द्रव्य होने पर भी धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय के कारण लोक और अलोक इस रूप में दो भागों में विभक्त हो जाता है। धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय के कारण ही लोकाकाश में ऊर्ध्व, मध्य व अधोलोक की भिन्नभिन्न आकृतियाँ बनती हैं। ऊर्ध्व लोक में धर्म, अधर्म द्रव्य विस्तृत होते चले गये हैं, इसलिए ऊर्ध्वलोक का आकार ऊर्ध्वमुख मृदंग की तरह है। मध्यलोक में धर्म, अधर्म द्रव्य संकुचित हैं अतः वहाँ लोक का आकार बिना किनारी वाली झालर के समान बनता है। फिर पुनः अधोलोक में धर्माधर्म द्रव्य विस्तृतता को प्राप्त हुए हैं अतः अधोलोक का आकार औंधे किए हुए सकोरे के समान बनता है। भगवतीसूत्र व अन्य जैनागमों में प्राप्त इन उल्लेखों से गति-तत्त्व धर्म व स्थिति-तत्त्व अधर्म का स्वरूप व उसकी उपयोगिता स्वतः सिद्ध हो जाती है। अरूपी-अजीवद्रव्य 141
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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