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________________ अगुप्ति; ये सब और इसी प्रकार के जो अन्य शब्द हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं। धर्म एवं अधर्म-द्रव्य की उपयोगिता भगवतीसूत्र में जब गौतम भगवान् महावीर से यह प्रश्न करते हैं, धर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है? इसके प्रत्युत्तर में भगवान् महावीर कहते हैंधर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग और काययोग प्रवृत्त होते हैं। ये और इस प्रकार के जितने भी गमनशील भाव हैं, ये सभी धर्मास्तिकाय द्वारा ही प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण गति रूप है। ____ भगवतीसूत्र के उक्त कथन से धर्मास्तिकाय की उपयोगिता गति के सहयोगी कारण के रूप में उभर कर आती है। जीव व पुद्गल जो भी गति करते हैं, धर्मास्तिकाय उसमें सहयोगी कारण रहता है। धर्मास्तिकाय के अभाव में हमारा पलकें झपकाना, चलना, उठना, बैठना कुछ भी संभव नहीं है। धर्मास्तिकाय इन सबकी गति में निमित्त कारण है। धर्मास्तिकाय गति का नियंत्रक तत्त्व भी है। छः द्रव्यों में से जीव व पुद्गल ये दो द्रव्य गतिशील हैं और इन दो द्रव्यों की गति में धर्मास्तिकाय सहायक बनता है। अतः ये दोनों (जीव व पुद्गल) द्रव्य वहीं गति कर सकते हैं, जहां धर्म-द्रव्य है। धर्मास्तिकाय के अभाव में जीव व पुद्गल की गति अव्यवस्थित हो जाती। वे लोक व अलोक दोनों में यात्रा करते रहते। फिर तो लोक व अलोक का विभाजन ही समाप्त हो जाता। भगवतीसूत्र28 में अधर्म द्रव्य की उपयोगिता बताते हुए भगवान् महावीर कहते हैं- अधर्म-द्रव्य से जीवों के स्थान (स्थित रहना), निषीदन (बैठना), त्वग्वर्तन (करवट लेना, लेटना या सोना) और मन को एकाग्र करना तथा इस प्रकार के जितने भी स्थिर भाव हैं, वे सब प्रवृत्त होते हैं। क्योंकि अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थिति रूप है। भगवतीसूत्र में वर्णित इस सूत्र से लोक व्यवस्था के संचालन में अधर्म-द्रव्य की उपयोगिता भी पूर्ण रूप से परिलक्षित होती है। प्रज्ञापनासूत्र में धर्म व अधर्म के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है कि जीव व पुद्गल ये दोनों गतिशील हैं, गति और स्थिति का उपादान कारण जीव व पुद्गल स्वयं है और निमित्त कारण धर्म व अधर्म द्रव्य हैं। गति व स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है इसलिए ऐसी शक्तियों की अपेक्षा है, जो स्वयं गतिशून्य हो और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो किन्तु, अलोक में न हो। धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि इनके बिना लोक की व्यवस्था भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन 140
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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