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________________ जीव व मन- मनोद्रव्य का जो समुदाय मनन-चिन्तन करने में उपकारी होता है तथा जो मनः पर्याप्ति नामकर्म के उदय से सम्पादित है, उसे मन कहते हैं। मन का भेदन मन का विदलन मात्र समझा जाना चाहिये। अर्थात् मन जब चिन्तन-मनन, स्मरण, निर्णय, संकल्प, विकल्प आदि करता है तब उसका विदलन होता है। जीव व मन के भेद को स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र'4 में मन को जीव से पृथक माना है। मन आत्मा नहीं है। मन आत्मा से भिन्न है, मन रूपी है, अचित्त है, अजीव है। मन जीवों के होता है, अजीवों के नहीं। मन के चार प्रकार बताये हैं1. सत्यमन, 2. मृषामन, 3. सत्यमृषा मन 4. असत्य मृषामन। इस प्रकार हम देखते हैं कि जीव व पुद्गल के संबंधों की व्याख्या करते हुए भगवतीसूत्र में न सर्वथा भेदवाद का न ही सर्वथा अभेदवाद को स्वीकार किया गया है। अपितु उनके संबंध को भेदाभेदवाद से प्रकट किया गया है। संसार स्थित जीव व पुद्गल अभिन्न होकर रहते हैं। सन्मतिप्रकरण में भी संसार स्थित आत्मा व पुद्गल को नीर-क्षीरवत् एकमेक बताया है। मुक्त आत्मा के साथ पुद्गल का कोई संबंध स्वीकार नहीं किया गया है। जीव के भेद-प्रभेद जैन दर्शन का आधारभूत तत्त्व जीव ही है। इसी तत्त्व की नींव पर सम्पूर्ण जैन-दर्शन खडा है। अचारांग में जीव तत्त्व की महत्ता को बताते हुए कहा गया है कि जो एक आत्म-तत्त्व को जान लेता है वह सम्पूर्ण को जान लेता है। जीव तत्त्व के संबध में जितना विस्तृत विवेचन जैन-दर्शन में प्राप्त होता है, उतना अन्यत्र किसी भी दर्शन में नहीं प्राप्त होता है। जैन-दर्शन में जीव के स्वरूप पर ही नहीं उसके भेदों-प्रभेदों पर भी विस्तार से चर्चा प्राप्त होती है। यों तो जैन दर्शन में जीवों की संख्या अनंत मानी है, किन्तु व्यवहार की दृष्टि से भिन्न-भिन्न आधारों से जीवों के अनेक भेद-प्रभेद किये गये हैं। प्रायः मोटे तौर पर जैन-दर्शन में जीवों के तीन प्रकार से भेद प्राप्त होते हैं। संक्षेप में चैतन्य की दृष्टि से सभी जीवों में एकत्व है क्योंकि चैतन्य जीव का स्वभाव ही है। मध्यम रूप में जीव के दो, छः व चौदह भेद प्राप्त होते हैं तथा विस्तार से जीव के पाँच सौ तिरेसठ भेद भी हैं। जीवों के भेद-प्रभेद के संबंध में प्रज्ञापना सूत्र व जीवाजीवाभिगम सूत्र में विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है। भगवतीसूत्र में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से जीवों के भेद-प्रभेद किये गये हैं। समग्र रूप से उन्हें प्रस्तुत करना यहाँ संभव नहीं है, किन्तु कुछ प्रमुख दृष्टिकोणों से जीव के भेद-प्रभेद को विवेचित किया जा रहा है। 100 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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