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________________ व्याख्या की है। उन्होंने शरीर को आत्मा से भिन्न व अभिन्न दोनों ही रूपों में स्वीकार किया है। जब आत्मा को नित्य, ध्रुव, अक्षय व शाश्वत कहा तब शरीर आत्मा से भिन्न हो जाता है क्योंकि आत्मा की तरह शरीर ध्रुव, नित्य, अक्षय व शाश्वत नहीं है और जब जीव के दस परिणाम बताये हैं तब शरीर आत्मा से अभिन्न हो जाता है क्योंकि ये परिणाम वास्तव में शरीर के हैं आत्मा के नहीं। चैतन्य व शरीर के इस संबंध की व्याख्या करते हुए डॉ० समणी चैतन्य प्रज्ञाजी ने अपने लेख में लिखा है कि वस्तुतः चेतना के विकास के अनुरूप शरीर की रचना होती है और शरीर की रचना के अनुरूप ही चेतना की प्रवृत्ति होती है। शरीर निर्माणकाल में आत्मा उसका निमित्त बनती है और ज्ञान-काल में शरीर के ज्ञान तन्तु चेतना के सहायक बनते हैं। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि शरीर व आत्मा दोनों एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी अभिन्न हैं। जब आत्मा शरीरधारी होता है तब शरीर उसके कार्यकलापों व विकास में साधक व बाधक दोनों ही रूपों में कार्य करता है, किन्तु जब आत्मा देह मुक्त या अशरीरी हो जाता है तब उस पर शरीर का कोई प्रभाव नहीं रहता है। इसी तरह जब तक शरीर में आत्मा का निवास होता है वह सजीव व चैतन्यरूप कहलाता है, आत्मा के अभाव में वह निर्जीव व अचेतन हो जाता है। जीव व इन्द्रिय- ज्ञान आत्मा का अभिन्न गुण है, किन्तु कर्मों से संयुक्त होने के कारण आत्मा का ज्ञान आवृत्त रहता है। अतः उस ज्ञान को प्रकट करने का माध्यम इन्द्रियाँ हैं। भगवतीसूत्र में पाँच इन्द्रियाँ स्वीकार की गई हैं। 1. श्रोत्रेन्द्रिय, 2. चक्षुरिन्द्रिय, 3. घ्राणेन्द्रिय, 4. रसेन्द्रिय, 5. स्पर्शेन्द्रिय। इन पुद्गलरूप इन्द्रियों को धारण करने के कारण आत्मा को भी अभेदोपचार से पुद्गल व पुद्गली दोनों कहा है- जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि - (8.10.59) अर्थात् जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है। इसके कारण को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि जैसे किसी पुरुष के पास छत्र हो तो उसे छत्री, दण्ड हो तो दण्डी, घट हो तो घटी व पट हो तो पटी कहा जाता है इसी प्रकार जीव श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रिय-जिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय (पुद्गल रूप होने) की अपेक्षा से पुद्गली कहलाता है। यहाँ आत्मा को पुद्गली कहने से तात्पर्य संसारी आत्मा से ही है। संसारी आत्मा के इन्द्रियाँ अवश्य ही होती हैं। चाहे उनकी न्यूनतम संख्या ही क्यों न हो और उन इन्द्रियों को धारण करने के कारण ही जीव को पुद्गली कहा गया है। मुक्त आत्माओं के इन्द्रियाँ नहीं होती हैं अतः उन्हें पुद्गली नहीं कहा है- सिद्धे णं भंते! किं पोग्गली, पोग्गले? गोयमा! नो पोग्गली, पोग्गले - (8.10.61)। जीव द्रव्य
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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