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________________ सर्वगत एवं असर्वगत की अपेक्षा - आकाश लोक व अलोक सभी में व्याप्त होने के कारण सर्वगत है। सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त होने के कारण धर्म और अधर्म द्रव्य भी सर्वगत हैं । एक जीव की अपेक्षा से जीव असर्वगत है। परन्तु लोकपुरण समुद्घात (केवली समुद्घात) की अवस्था में एक जीव भी अपेक्षा से सर्वगत है। पुद्गल द्रव्य लोक व्यापक महास्कन्ध की अपेक्षा से सर्वगत है, किन्तु शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत है। काल द्रव्य भी एक कालाणुद्रव्य की अपेक्षा से सर्वगत नहीं है। लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर भिन्न-भिन्न कालाणुओं की विवक्षा से काल द्रव्य लोक में सर्वगत है। कारण व अकारण की अपेक्षा- पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल ये पाँचों द्रव्य व्यवहारनय से जीव के लिए शरीर, वाणी, भाषा, प्राण, उच्छ्वास, गति, स्थिति, अवगाहना, वर्तना आदि रूप में कार्य करते हैं अतः ये पाँचों द्रव्य कारण रूप हैं। जबकि जीव, जीव का तो उपकार करते हैं परन्तु अन्य पाँचों द्रव्यों का कुछ नहीं करते अतः अकारण हैं। कर्ता व भोक्ता की अपेक्षा- जीव पाप व पुण्य की दृष्टि से कर्मों का कर्ता भी है और उसके शुभ-अशुभ परिणाम का भोक्ता भी है। भगवतीसूत्र में जीव को कामी व भोगी दोनों ही रूप में स्वीकार किया है। अन्य शेष पाँच द्रव्यों में पाप-पुण्य की अपेक्षा से अकर्तृत्व है। भगवतीसूत्र में द्रव्य के भेद-प्रभेद __ भगवतीसूत्र में मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद किये गये हैं- 1. जीव द्रव्य, 2. अजीव द्रव्य। अजीव द्रव्य के तीन प्रकार से भेद किये गये हैं (क) अजीवद्रव्य रूपी-अजीवद्रव्य अरूपी-अजीवद्रव्य स्कन्ध स्कन्ध देश स्कन्धप्रदेश स्कन्धपरमाणु धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय का देश धर्मास्तिकाय का प्रदेश अधर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय का देश अधर्मास्तिकाय का प्रदेश आकाशास्तिकाय द्रव्य 81
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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