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________________ द्रव्य भगवतीसत्र में जहाँ लोक का स्वरूप बताते हुए उसे पंचास्तिकाय रूप कहा है, वहीं दूसरी ओर उसे षड्द्रव्यात्मक रूप में भी स्वीकार किया है।' अर्थात् अस्तित्व की दृष्टि से यह समस्त लोक छः द्रव्यों का समूह है। लोक में अवस्थित इन छः द्रव्यों के स्वरूप को विवेचित करने से पूर्व यहाँ द्रव्य का स्वरूप, द्रव्य व पर्याय का सम्बन्ध, द्रव्य के भेद-प्रभेद आदि का विवेचन अपेक्षित है। द्रव्य का स्वरूप जैनेन्द्र व्याकरण के अनुसार द्रव्य शब्द को इवार्थक निपात मानना चाहिये। 'द्रव्यंभव्ये' इस जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार जो 'द्रु' की तरह हो उसे द्रव्य समझना चाहिये। जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी द्रु (लकड़ी) बढ़ई आदि के निमित्त से टेबल, कुर्सी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी 'उभय (बाह्य व आभ्यन्तर) कारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहा है। पंचास्तिकाय के अनुसार उन-उन सद्भाव पर्यायों को, जो तत्त्व द्रवित होता है, प्राप्त होता है, उसे द्रव्य कहते हैं, जो सत्ता से अनन्यभूत है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार- जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं, वे द्रव्य कहलाते हैं। द्रव्य शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं। सत्ता, सत् अथवा सत्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि, ये नौ शब्द सामान्य रूप से एक द्रव्यरूप अर्थ के ही वाचक हैं। जैन परम्परा में सत् व द्रव्य को एक ही माना है। इनमें सिर्फ शब्द की दृष्टि से भेद है अर्थ-भेद नहीं है। प्रवचनसार में कहा गया है कि द्रव्य अगर सत् नहीं है तो असत् होता; और असत् तो द्रव्य नहीं हो सकता, अतः द्रव्य स्वयं सत्ता है। पंचास्तिकाय' में आचार्य कुंदकुंद ने द्रव्य का लक्षण सत् बताते हुए उसे उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य युक्त तथा गुण व पर्याय का आश्रय भी कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने सत् की व्याख्या करते हुए कहा है कि सत् वह है जो उत्पाद, व्यय व ध्रौव्यता से युक्त हो- उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् - (5.29)। आगे उन्होंने भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन 76
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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