SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकान्त व अलोकान्त का स्पर्श लोक व अलोक की तरह लोकान्त व अलोकान्त में भी पहला-पिछला क्रम नहीं है। लोक का अन्त अलोक के अन्त को स्पर्श करता है व अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है। यह स्पर्श छः दिशाओं से स्पृष्ट होता है। छः दिशाओं से स्पृष्ट की बात ग्रंथ में विस्तार से समझाई गई है। स्पष्ट है कि भगवतीसूत्र में लोक के स्वरूप, प्रकार, संस्थान, आकार आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। लोक के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसे पंचास्तिकाय व षड्-द्रव्यात्मक रूप दोनों प्रकार से मानकर उसमें धर्म, अधर्म, जीव, पुदगल, आकाश व काल इन छः द्रव्यों का समावेश किया गया है। आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी विश्व को परिभाषित करने का प्रयत्न किया गया है। फ्रेड होयल ने अपनी पुस्तक 'फ्रन्टियर्स ऑफ एस्ट्रोनोमी'37 में लिखा है- 'विश्व सब कुछ है, जीव और अजीव पदार्थ, अणु और आकाशगंगाएँ और यदि भौतिक पदार्थों के साथ आध्यात्मिक तत्त्वों का अस्तित्व हो तो वे भी। यदि स्वर्ग और नरक हो तो वे भी क्योंकि विश्व सभी पदार्थों की 'सकलता' (Wholeness) है।' मुनि महेन्द्र कुमार विश्व सकलता के बारे में लिखते हैं- 'विश्व शब्द का व्यापक अर्थ है, उन सभी तत्त्वों का समूह, जिनका अस्तित्व हम इन्द्रिय, बुद्धि और आत्मा द्वारा जान सकते हैं। अणु से लेकर आकाशगंगा तक सभी छोटे-बड़े भौतिक पदार्थ तो इसमें समाहित हैं, किन्तु इसके अतिरिक्त आकाश, काल, ईथर, चैतन्य आदि तत्त्वों का भी अनुभव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमें होता है। अतः ये भी विश्व के अंग हैं।"38 संदर्भ 1. 2. ऋग्वेद, 1.164.4 विष्णु पुराण, शोक, 5.9 अभिधर्मकोष, 3.1 आचारांग, सम्पा. मुनि मधुकर, 1.1.1 तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन, 3 'जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहवे आयासं अत्थितम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता'-पंचास्तिकाय, गा., 4 गोम्मटसार, जीवकांड, गा., 561-564 शास्त्री, देवेन्द्रमुनि-जैन दर्शन स्वरूप और विश्रूषण (ख) मुनि नथमल-जैन दर्शन मनन और मीमांसा (ग) संघवी, सुखलाल-तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन), तीसरा अध्याय 7. (क) भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy