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________________ आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 49 अहोरात्र तथा मन्वन्तर के हिन्दू आख्यानों का प्रभाव जैनों के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामक आरों (काल विभाजन) पर पड़ा था। हर्मन जैकोबी तथा पाण्डुरंग वामन कणे नामक दोनों विद्वान इस मान्यता पर अत्यधिक आग्रह रखते हैं कि बौद्ध और जैन श्रमण दोनों ही सम्प्रदाय हिन्दू धर्म के ऋणी हैं; इस बात से पूर्णत: इनकार नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए बौधायन धर्मसूत्र में दिये गये पंचव्रत हैं: अहिंसा, सुनृत, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये व्रत वहीं हैं जिनका कि जैन साधुओं को पालन करना पड़ता है और इनका क्रम भी उसी प्रकार है। बौद्ध भिक्षुओं को भी इन्हीं शीलों का पालन करना पड़ता है और इनका क्रम भी उसी प्रकार है। परन्तु उनकी सूची में दूसरे स्थान पर अन्तर है। श्रमण और ब्राह्मण दोनों साधुओं के व्रतों की समानता सामान्य सिद्धान्तों की है जो वैरागी जीवन के सुप्रतिष्ठित आदर्श से सम्बन्धित हैं। उदाहरण के लिए जैनों के पांच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह। यह पतंजलि के योगसूत्र में पहले ही से वर्णित हैं। पहले पार्श्वनाथ ने चार याम बनाये थे। सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह जो महावीर के ब्रह्मचर्य जोड़ देने पर पतंजलि के पांच महाव्रतों के सदृश हो गये। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि बौद्धों का चातुर्याम संवर अर्थात् शीतजल प्रयोग, बुराई, पाप तथा प्राकृतिक विसर्जन में सतर्क रहना से प्रतीत होता है कि विभ्रमित सिद्धान्त है। बौद्ध पंचशील भी यही दोहराते हैं। इन्हीं पंचशीलों का विकास आ शीलों में हो जाता है जब उसमें रात्रि में अखाद्य वस्तुएं नहीं खाना, पुष्पहार नहीं पहनना, सुगन्ध का प्रयोग नहीं करना तथा भूमि पर शयन करना जोड़ दिये जाते हैं। यही आठ शील कालान्तर में शीलों में पर्यवसित हो जाते हैं जबकि इनमें नृत्य संगीत वर्जित हो जाते हैं तथा स्वर्ण व रजत परित्याग का सिद्धान्त जुड़ जाता है। ब्राह्मण संन्यासी से भी यही अपेक्षा की जाती है कि वह जीव हिंसा से बचे तथा कृपणता से बचे, असत्य से बचे, परद्रव्य से बचे तथा असंयम से बचे।42 ब्राह्मण धर्मसूत्र, जैन तथा ब्राह्मणों के संन्यास सम्बन्धी विचार लगभग एक से हैं। आदर्श संन्यासवृत्ति के प्रशिक्षण में है तथा उसके समाज से व्यवहार के नियमन में भी है। योगसूत्र में सांख्य को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि अहिंसा ही प्रधानव्रत है। जिसकी परिपूर्णता के लिए अन्य व्रतों को स्वीकार किया गया है।43 श्रमण आत्मा के पुनर्जन्म में विश्वास करते थे जो जीवन के निम्नतम रूप से लेकर उच्चतम प्रकार की सत्ता के बीच की निरन्तर अन्तक्रिया है। अत: श्रमणों के लिए अहिंसा आवश्यक बन गई। मैक्समूलर,44 बूलर तथा कर्न46 तीनों ने इन तीन धर्मों के साहित्य में उपलब्ध संन्यासियों के कर्तव्यों की तुलनात्मक गवेषणा की है तथा तीनों का यही निष्कर्ष है कि जैन धर्म और बौद्धधर्म ब्राह्मण धर्म के ऋणी हैं। इन विद्वानों का मत है कि हिन्दुओं के संन्यास धर्म तथा संन्यासियों के
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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