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समाज दर्शन एवं समाज व्यवस्था • 255
मुद्राएं दान में दी थीं। जैन श्रावकों के विषय में विस्तार के लिए द्र० जयप्रकाश सिंह,
आस्पेक्ट्स आफ अर्ली जैनिज्म एज नोन फ्राम एपीग्राफ्स, पृ० 271 78. ज्ञातृधर्मकथा, 13 स० एन०वी० वैद्य, पृ० 141। 79. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 21। 80. पशूनां रक्षणं दानमिज्याअध्ययनमेव च।
वणिक्यधं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेवच।। - मनुस्मृति, 1/901 81. सूत्रकृतांग एस०बी०ई० जि० 45, पृ० 3731 82. वही, 2/2/621 83. वही, 2/2/62-63। 84. वही, 2/2/64-651 85. उदाहरण के लिए जैन तथा बौद्ध संघ का द्वार बिना किसी भेदभाव के महावीर स्वामी तथा
गौतम बुद्ध ने सबके लिए खोल दिया। किन्तु संघ विस्तार के साथ सैद्धान्तिक आधार तो वही बना रहा किन्तु व्यवहार में संघ प्रवेश के लिए जातीय आधार पर प्राथमिकता दी जाने लगी। कालान्तर में दिगम्बर जैन संघ में श्रमणों को शूद्र जल परित्याग का व्रत दिलाया जाने लगा। इतना अवश्य था कि इनके संघों में प्रवेश करने से पूर्वं जाति या कुलीनता अर्थ रखती थी किन्तु संघ प्रविष्ट होने पर जाति अपना अर्थ, मूल्य और स्वरूप खो देती थी। वस्तुत: आज भी जैन संघ में प्रविष्ट व्यक्ति को जाति सम्बन्धी उपाधि से नहीं जाना जाता अपितु उसके आध्यात्मिक पर्याय से उपलब्ध आचार्य, साधक. साध्वी जैसी उपाधि से जाना जाता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन अभी भी यही स्वीकार करते हैं कि संघ में प्रविष्ट सभी सदस्य व्यक्ति या व्यक्तिगत चेतना हैं जाति नहीं किन्तु साथ ही साथ शूद्रों के समानता के अवसर को बाधित करने के लिए उन्होंने ऐसा नियम बना रखा था कि संघ का नियमित सदस्य बनने के लिए साधना की न्यूनतम योग्यता आवश्यक है ताकि संघ आचार को पाल सके। इस न्यूनतम योग्यता के आधार पर ही अधिकांशतः शूद्र अयोग्य मान लिए जाते थे। अधिक विस्तार के लिए द्र० फिक, पूर्वोक्त, पृ० 30-33; घुर्ये, कास्ट क्लास एण्ड आक्यूपेशन, पृ० 70-71: चार्ल्स इलियट, हिन्दूइज्म एण्ड
बुद्धिज्म-1,221 86. उत्तरज्झयणाणि सानुवाद, पृ० 156 तथा उत्तराध्ययन टीका, 13, पृ० 186, द्र० जैन
आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ०2321 87. उत्तरज्झयणाणि, अ० 13, आमुख, पृ० 156।। 88. अन्त:कृद्दशा, 4, पृ० 22 तु० मनुस्मृति, 10/50 जहां कहा गया है कि इन वर्ण संकर
जातियों को चैत्यद्रुम ग्राम के समीप प्रसिद्ध वृक्ष श्मशान, पर्वत और उपवनों में अपनी आजीविका के कार्य करते हुए रहना चाहिए। शूद्रों के लिए प्राय: अनार्य तथा म्लेच्छ शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। जिसमें म्लेच्छ की गणना में वरवर, सरवर और पुलिन्द्र नामक
जाति आती थी तथा अनार्य साढ़े छत्तीस प्रदेश से बाहर रहने वाले थे। 89. द्र० आचारांग एस०बी०ई० जि० 22, पृ० 137-38। 90. अन्त:कृद्दशा, 4, पृ० 22। 91. निशीथचूर्णि, 4/1816 की चूर्णि। 92. सूत्रकृतांग एस०बी०ई०, जि० 45,2/271. 93. उत्तराध्ययन एस०बी०ई०, जि० 45, अ० 12/1 पृ० 50 यहां हरिकेश को चाण्डाल
कहा गया है।