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________________ समाज दर्शन एवं समाज व्यवस्था • 243 था। उसके घर सब प्रकार के धान्यों के हजारों कुम्भ भरे रहते थे। इस प्रकार यह युग श्रेष्ठियों का युग था। किन्तु स्मरणीय है कि यही श्रेष्ठि उस युग के संन्यास परायण श्रमण सम्प्रदायों के पोषक थे। यह श्रमणों का आदर सम्मान करने के साथ ही उन्हें भोजन, वस्त्र और आवास प्रदान करते थे तथा समय-समय पर उन्हें दान देते थे।” जहां समाज अपने आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए श्रमणों का मुखापेक्षी था वहीं यह श्रमण अबाधित साधना के लिए तथा पूर्ण अहिंसा व अपरिग्रह के पालन के लिए धर्म तथा धर्म के सम्यक् प्रचार व प्रसार के लिए इस धनिक श्रावक वर्ग का अपेक्षी था। इस प्रकार समाज की दो विरुद्ध धर्मक प्रवृत्ति तथा निवृत्ति धाराओं में अनूठा तारतम्य दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त श्रेष्ठी जनोपयोगी कार्य भी करते थे-जैसे पाठशालाओं का निर्माण, उद्यानों का निर्माण आदि। नन्द राजगृह का एक प्रभावशाली श्रेष्ठि था। जिसने बहुत सा धन व्यय करके पुष्करिणी का निर्माण कराया था। विद्वानों के एक वर्ग का आग्रह है कि जैन धर्म और बौद्ध धर्म के अभ्युदय में श्रेष्ठियों की अनुकूलता एक सहयोगी कारण था। किन्तु यह आग्रह पूर्णतया अप्रामाणिक है। जैन तथा बौद्ध धर्म स्वभावत: निवृत्तिपरक सम्प्रदाय थे जिनकी धन से रागात्मकता अमान्य है। यद्यपि श्रेष्ठियों ने श्रमण सम्प्रदाय की सहायता की किन्तु इन सम्प्रदायों के तत्कालीन उद्भव से श्रेष्ठिवर्ग का उद्भव अनिवार्य सम्बन्ध रखता था यह कहना उचित नहीं है। ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत भी वैश्यों की स्थिति तीनों वर्गों के आर्थिक आधार होने के कारण बहुप्रतिष्ठित थी।80 किन्तु अपनी सम्पन्नता के प्रति सहजात वृत्ति के कारण इन गृहपति वैश्यों की जैनसूत्रों में निन्दा भी की गयी है तथा इन्हें अत्यन्त अधार्मिक स्वभाव, आचरण और चरित्र वाले व्यक्ति कहा गया है। जो अपनी आजीविका रक्तरंजित हाथों से कमाते हैं। हिंसा करते हैं, क्रूर हैं, छल, छद्म, पाखण्ड और आडम्बर से युक्त हैं तथा स्वभावत: रिश्वत लेते देते हैं।82 तथा गलत माप तोल के बांटों का प्रयोग करते हैं तथा अपने भृतकों और दासों से यातनापूर्ण अमानवीय व्यवहार करते हैं। भौतिक सुखों के अधीन हैं तथा माता-पिता व निकटतम सम्बन्धी पति, पत्नी, पुत्रवधु के भी सगे नहीं हैं।84 शूद्र आरम्भ से ही हीन दशा में रहते आये हैं। महावीर और बुद्ध ने उनकी दशा सुधारने का अमित यत्न किया, लेकिन फिर भी वर्ण और जाति सम्बन्धी प्रतिबन्ध दूर नहीं किये जा सके। आगम काल में शूद्रों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। जैन साहित्य में अस्पृश्य समझे जाने वाले मातंग और चाण्डालों की चर्चा मिलती
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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