SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ xxiv • पारिभाषिक शब्दावली 18. अज्ञानवाद या शत्रुहंता है। श्रमण अपने वीतरागात्माओं के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे। : अज्ञानवादी प्रत्यक्ष विषय को निश्चित ज्ञान का अगोचर समझते थे। इस दृष्टि से वह अज्ञान को ही कल्याण रूप मानते थे। उनके अनुसार कुछ भी जानने की जरूरत नहीं, ज्ञान प्राप्त करने से हानि ही होती है। जैन मतानुसार मुक्ति के लिए ज्ञान नहीं, तप की आवश्यकता है। तत्व विषयक अज्ञेयता या अज्ञानता अज्ञानवाद की आधारशिला है। यह पाश्चात्य संशयवाद से मिलता-जुलता मत है। 19. आत्मा : वैयक्तिक चेतना। 20. आपृच्छा-प्रतिपृच्छा : प्रत्येक कार्य आरम्भ करने से पूर्व अनुमति लेने को पृच्छा कहा गया है तथा पुन: आज्ञा लेने का विधान प्रतिपृच्छा कहलाता है। 21. आरोवणा : एक दोष का प्रायश्चित चल रहा हो कि अन्य दोष व्याप्त हो जाए और प्रायश्चित की अवधि बढ़ जाए। 22. आलोचना : आचार्य अथवा मुनिसंघ के समक्ष पापों की स्वीकारोक्ति। 23. आवश्यकी : यदि आवश्यक कार्यवश मुनि को उपाश्रय से बाहर जाना पड़े तो वह जाने की आवश्यकता की घोषणा करके जाए तथा अनावश्यक कार्य के लिए प्रवृत्त न हो ऐसा नियम आवश्यकी है। 24. आवीचि : आयु की विच्युति अर्थात शरीर को निष्काम भाव से संयमित रखकर कर्मतरंगों को रोकना और बन्धन मुक्त होना। 25. इंगिनी : दूसरों से सेवा लिए बिना संन्यास मरण। 26. इच्छाकार मिच्छाकार : यदि कनिष्ठ साधु को वरिष्ठ से कार्य कराना हो तो वह कहेगा 'यदि आपकी इच्छा हो तो मेरा यह कार्य कर दीजिए' यह इच्छाकार है। कार्य में त्रुटि हो जाने पर उस कार्य को मिथ्या घोषित करने का नियम मिच्छाकार है। 27. उत्थापना 28. उपधि : सावधानीपूर्वक नियम पालन करना। : उपकरण अथवा आवश्यक वस्तु।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy