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जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप • 209
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात असत्यंप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयात एवं धर्म सनातनं।।192
इस प्रकार मनु और जैन दोनों ही कटुसत्यवादिता से अधिक प्रिय सत्यवचन पर बल देते हैं। इसका कारण यह है कि कटु या यथार्थ सत्य बोलने से कभी अहिंसा व्रत का उल्लंघन हो सकता है अर्थात् कटु सत्य बोलने से सुनने वाले को चोट पहुंच सकती है। __ प्रश्न उठता है कि क्या हरेक परिस्थिति में सत्यव्रत का पालन सम्भव है। एक चिकित्सक जानता है कि रोगी नहीं बचेगा, फिर भी उसके परिवार वालों की सान्त्वना के लिए तथ्य को छिपाता है। एक वकील यह जानते हुए भी कि मुकदमें में हार निश्चित है, अपने मुवक्किल को विजयी होने का आश्वासन देता है। हर एक परिस्थिति में मन, वचन और कर्म से सत्यव्रत का पालन हो ही, ऐसा संभव नहीं है। अन्य व्रतों के अनुसार इसका पालन भी अपवाद रहित नहीं हो सकता। महाभारत साक्षी है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने भी सत्यव्रत का उल्लंघन "अश्वत्थामाहतो नरो वा कुंजरो वा' कह कर किया था।
धर्मग्रन्थों में सत्यव्रत के पालन के दो अपवाद बताये गये हैं।93
(1) किसी अत्याचारी से निरपराध की रक्षा के लिए असत्य बोला जा सकता है।
ऐसी परिस्थिति में यथार्थ को छुपाना सत्यव्रत के विरुद्ध नहीं है। (2) आत्मरक्षा और लोकहित या हिंसा से बचने के लिए असत्य भाषण किया जा
सकता है।
जैन आचार में श्रावक के लिए सत्यव्रत के भाव का पालन मात्र करना आवश्यक है।194 चूंकि अहिंसा ही सबसे महत्वपूर्ण व्रत है, इसलिए शेष सभी व्रतों का पालन मात्र इतना ही आवश्यक है कि अहिंसा व्रत का खण्डन न हो।195 ऐसी परिस्थिति में जहां सत्य बोलने से हिंसा या हत्या हो सकती है, जैसे हत्या करने के लिए पीछे हुए डाकुओं से बचने के लिए जब कोई व्यक्ति छिप जाता है तो उसका स्थान न बताने में जो जानबूझ कर असत्य बोल जाता है वह नैतिक दृष्टि से उचित है। ऐसी स्थिति में झूठ बोलने से हत्या हो सकती है। इसलिए यह उस सचाई से श्रेष्ठतर है जिससे कि हिंसा या हत्या हो सकती है। इसी प्रकार, कोई जानवर झाड़ी में छिप गया है और शिकारी को इसकी जानकारी नहीं है, तो ऐसी स्थिति में सत्य बताने से उस जानवर की हत्या हो सकती है।
जैन सत्यव्रत के इस स्वरूप का समर्थन महाभारत के शान्तिपर्व में भीष्म के इस कथन से होता है कि विषम परिस्थिति में बिना बोले हुए काम चल जाये तो