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________________ जैन संघ का स्वरूप • 153 अनेक जातीय परीषहों को सहन करना है। अचेलमुनि लाघव को प्राप्त होता है। उपकरण अवमौदर्य तथा काय: क्लेश तप को प्राप्त होता है।48 (4) अहिंसा अहिंसा परमोधर्म: जैनों का सिद्धान्त था। किन्तु उनके संघ में इसका चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है। जैन भिक्षु परजीवों पर इतने आर्द रहते हैं कि स्वयं कष्ट ओढ़ लेते हैं।349 हिंसा से बचने के लिए ही जैनों ने भोजन की शुद्धता की अवधारणा बनाई तथा भिक्षा व गमनागमन के लिए अनेक नियमों व उपनियमों का निर्माण किया। समभवत: कोई भी सम्प्रदाय मर्यादा पालन में जैनों से स्पर्धा नहीं कर सकता। (5) अपरिग्रह जैन संघ की तुलनात्मक दृष्टि से यह अपूर्व विशेषता है कि जैन श्रमणों ने या जैन संघ ने समवेत में कभी भी स्वर्ण, मणि, मुक्तक अथवा रजत या द्रव्य को किसी भी निमित्त से स्वीकार नहीं किया जबकि बौद्ध संघ ने अनेकानेक आराम जैतवन, वेलुवन आदि स्वर्ण मुद्राओं के साथ स्वीकार किये। बौद्धों की द्वितीय संगीति में तो वज्जि के भिक्षुओं द्वारा दस अकरणीय कल्पों में जातरूपरंजक अर्थात् द्रव्यसंग्रह महत्वपूर्ण था। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मनुष्य की धार्मिक जागरूकता की प्रथमावस्था में ही जैन धर्म ने अध्यात्मवाद का परिरक्षण किया है। यह आत्मा तथा पुद्गल के पार्थक्य को प्रमाणित करता है।350 यद्यपि सिद्धान्तत: जैन समाज की कम से कम निर्भरता पर बल देते थे किन्तु उन्होंने बड़ी चतुराई से श्रावक और श्राविका गृहस्थों से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखा। यही कारण है कि संघ की अनवरतता अक्षुण्ण बनी रही। रूढ़िवादी विचारों के उपासक श्रमणसंघ के अनुशासन के लिए नियन्त्रक सिद्ध हुए।5। यही कारण है कि विदेशों में सुख्यात बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो गया जबकि उसी का समसामयिक गौण धर्म जैन धर्म के रूप में भारत भूमि में पुष्पित और पल्लवित है।52
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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