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________________ जैन संघ का स्वरूप. 125 ओघ सामाचारी के इस प्रकार हैं।90 (1) आवश्यकी (3) आपृच्छा (5) छन्दना (7) मिथ्याकार (9) अभ्युत्थान (2) नैषेधिकी (4) प्रतिपृच्छा (6) इच्छाकार (8) तथाकार (10) उपसम्पदा। दसविध सामाचारी की सम्यक् परिपालना से अनेक गुण उत्पन्न होते हैं। आवश्यकी-नषेधिकी 'सामान्य विधि यह है कि मुनि जहां ठहरा हो, उस उपाश्रय से बाहर न जाये। विशेष विधि के अनुसार आवश्यक कार्य होने पर वह बाहर जा सकता है। किन्तु बाहर जाते समय आवश्यकी करे, आवश्यकी का उच्चारण करे। “आवश्यक कार्य से बाहर जा रहा हूं" इसे निरन्तर ध्यान में रखे। अनावश्यक कार्य में प्रवृत्ति नहीं करे। कार्य से निवृत्त होकर जब वह स्थान में प्रवेश करे तो नैषेधिकी का उच्चारण करे। "मैं आवश्यक कार्य से निवृत्त हो चुका हूं, प्रवृत्ति के समय कोई अकरणीय कार्य हुआ हो तो उसका निषेध करता हूं, उससे अपने आपको दूर करता हूं।'' इस भावना के साथ वह स्थान में प्रवेश करता है। यह साधुओं के गमनागमन की सामाचारी है। गमन और आगमन काल में उसका लक्ष्य अबाधित रहे इसका इन दो सामाचारियों में सम्यक् चिन्तन है। आपृच्छा-प्रतिपृच्छा सामान्य विधि यह है कि उच्छवास और नि:श्वास के अतिरिक्त शेष सभी कार्यों के लिए गुरु की आज्ञा लेनी चाहिए। आज्ञा के दो स्थान बताये गये हैं-(1) स्वयंकरण (2) परकरण। स्वयंकरण के लिए आपृच्छा प्रथम बार पूछने तथा परकरण के लिए प्रतिपृच्छा पुनः पूछने का विधान है। प्रयोजनावश किसी भी कार्य की प्रवृत्ति के लिए गुरु से आज्ञा प्राप्त करने को आपृच्छा कहा जाता है। गुरु के द्वारा किसी भी कार्य की प्रवृत्ति के लिए पूर्वनिषिद्ध कार्य की आवश्यकता होने पर गुरु से उसकी आज्ञा प्राप्त करने को प्रतिपृच्छा कहा जाता है। गुरु के द्वारा किसी कार्य पर नियुक्त होने पर उसे आरम्भ करते समय पुन: गुरु की आज्ञा लेनी चाहिए। यह प्रतिपृच्छा का आशय है।192
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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