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________________ जैन संघ का स्वरूप • 105 (2) अनागत चतुर्दिससंघ अर्थात् सार्वकालिक और सार्वदेशीय संघ जिसमें बुद्ध की शिक्षा के प्रति सभी आस्थावान अनुगामी भिक्षु और भिक्षुणी थे- यहां तक कि वे भी जो भविष्य में कभी इसकी सदस्या ग्रहण करेंगे। इसके अतिरिक्त वह लोग भी सम्मिलित थे जिनकी संघ को अंगीकार करने की सम्भावना थी। आदर्श रूप में सम्मुख संघ चतुर्दिश संघ का ही एक भाग थे। चुल्लवग्ग में आगन्तुक या स्थानीय या आवासीय भिक्षु के शिष्टाचार के नियम मिलते हैं। __जैन धर्म संघ के सदस्यों का वर्गीकरण दो तत्वों के आधार पर होता है। यह है—साधना और व्यवस्था। साधना के दो अंग हैं-चरित्ताराधना एवं ज्ञानाराधना। चरित्र की विशिष्ट आराधना की दृष्टि से जैन वाङ्मय में तीर्थंकर अर्हत, केवली तथा अन्य मुनियों का उल्लेख है। संघ का मुख्य आधार है व्यवस्था। इसके सम्यक् संचालन के लिए भगवान के समय में एक ही पद निश्चित था-गणधरपद। उस पर महावीर ने अपने ग्यारह शिष्यों को नियुक्त किया था। व्यवस्था की दृष्टि से मात्र इतनी ही जानकारी मिलती है कि भगवान के शासन में श्रमण समुदाय के नौ गण थे तथा ग्यारह गणधर थे। प्रथम सात गणों का नेतृत्व एक-एक गणधर करते थे शेष का दो-दो। इन्द्रभति गौत्रम के अतिरिक्त नौ गणधरों ने भगवान की विद्यमानता में ही अपने गणों को सुधर्मा स्वामी को समर्पित कर दिया था। इससे यह सिद्ध होता है कि महावीर के समय में उनके संघ में गणधर के अतिरिक्त किसी पद मर्यादा का सूत्रपात नहीं हुआ था। साध्वी समाज का नेतृत्व महासती चन्दना को सौंपा गया था। पर प्रवर्तिनी जैसे किसी पद पर उनकी नियुक्ति हुई हो यह आगमिक आधार पर सिद्ध नहीं होता क्योंकि उनके नाम के साथ अज्जचन्दना अर्थात् आर्या के अतिरिक्त किसी उपाधि सूचक शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। विचारणीय प्रश्न यह है कि समूचे संघ में अपने अपने गणों की संचालन व्यवस्था अकेले गणधर ही करते थे अथवा अपनी सुविधानुसार कार्य का विभाजन भी करते थे? अंग साहित्य में आत्मानुशासन, संघीय विधि विधान और आचार सम्बन्धी नियमोपनियम की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है तथापि संघ के कार्य विभाजन और पद मर्यादा कहीं भी निर्दिष्ट नहीं किये गये।43 इसका एकमात्र कारण हो सकता है श्रमण साधक साधिकाओं की आत्मनिष्ठता, बाहरी प्रवृत्तियों के विस्तार का अभाव, आशुग्राही प्रज्ञा और ध्यान स्वाध्याय में लीनता। ऐसे प्रबुद्ध साधकों के लिए संकेत ही पर्याप्त होता है न कि विधि विधानों की व्यवस्थाएं। अत: व्यवस्था विस्तार की उस समय कोई विशेष
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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