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________________ 104 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति उसका जिस पद्धति से पल्लवन किया है वह धार्मिक संघों के इतिहास में अप्रतिम कहा जा सकता है। उन्होंने अपने धर्मसंघ को आत्मानुशासन की भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने कहा- 'कुशले पुणे नो बद्धे नो मुक्के' अर्थात् प्राज्ञ व्यक्ति को बाहरी बन्धनों से जकड़ने की अपेक्षा नहीं होती क्योंकि वह आत्मानुशासन से मुक्त नहीं होता। किन्तु जहां समाज होता है वहां सबके संस्कार, रुचियां और अपेक्षाएं एकरूप नहीं होती। आत्मानुशासन भी सबका समान विकसित नहीं होता। अत: धार्मिक संघ में भी व्यवस्थाओं और संचालन की प्रविधियों का निर्धारण अपेक्षित समझा गया। जैन धर्म संघ का प्रारूप महावीर का संघ अपने शैशव से ही चतुर्विध संघ था। (1) श्रमण संघ (2) श्रमणी संघ (3) श्रावक संघ, तथा (4) श्राविका संघ इस प्रकार जैन संघ में श्रमण और श्रमणी के अतिरिक्त श्रावक (उपासक गृहस्थ पुरुष) तथा श्राविका (उपासिका गृहस्थ स्त्रियां) संघ के घटक थे। किन्तु समकालीन बौद्ध संघ में गृहस्थ स्त्री-पुरुष अनुपस्थित रहे। संघ को दान देने वाले श्रद्धालु उपासकों की चर्चा तो है किन्तु सैद्धान्तिक रूप से उनकी संघ में स्थिति अस्पष्ट ही है। महावीर की शिष्य सम्पदा का विवरण प्रस्तुत करते हुए कल्पसूत्रकार कहते हैं कि-भगवान महावीर की इन्द्रभूति गौतम आदि चौदह हजार परिमित उत्कृष्ट श्रमण सम्पदा थी। आर्या चन्दना प्रमुख छत्तीस हजार उत्कृष्ट श्रमणी सम्पदा थी। उनके शिष्य परिवार में चौदह सौ मुनि चतुर्दशपूर्वी, तेरह सौ विशिष्ट अवधिज्ञानी तथा सात सौ केवलज्ञानी थे। पांच सौ विपुलमति मन: पर्यवज्ञानी थे, चार सौ मुनि वादलब्ध सम्पन्न थे। सात सौ शिष्यों और चौदह सौ शिष्याओं ने सिद्धि प्राप्त की थी। जैन संघ के विपरीत बौद्ध संघ सिद्धान्तत: दो विभागों में बंटा था: (1) सम्मुखी भूतसंघ अर्थात् स्थानीय संघ तथा,
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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