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________________ आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 83 ईश्वरकारणवादी तथा आत्माद्वैतवादी इस्सकरणवादी249 या ईश्वरकारणवादी यह मानते हैं कि इस सारे संसार का कर्ता ईश्वर है। ईश्वर जगत का आदि कारण है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान है। वह अपनी इच्छा से न तो सुख पा सकता है और न ही दुख को मिटा सकता है अपितु ईश्वर की आज्ञा से ही सुख-दुख की प्राप्ति होती है। ईश्वर कारणवादी कहते हैं कि अज्ञानी जीव स्वयं सुख प्राप्ति तथा दुख परिहार करने में समर्थ नहीं हैं, यह स्वर्ग या नर्क में जाता है तो ईश्वर की प्रेरणा से ही जाता है।250 आत्माद्वैतवादी एक आत्मा ब्रह्म को ही सारे जगत का कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि सारे विश्व में एक ही आत्मा है, वही प्रत्येक प्राणी में स्थित है। वह एक होता भी विभिन्न जलपात्रों के जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा के समान प्रत्येक जीव में भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है।251 जैसा कि श्रुति में माना गया है कि जो कुछ हो चुका है, या जो कुछ होने वाला है, वह सब आत्मा ही है।252 ____ईश्वरकारणवादी और आत्माद्वैतवादी यह दोनों ही यह मानते हैं कि आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक जो श्रमण निर्ग्रन्थों का द्वादशांगी गणिपिटक जैनागम है, वह मिथ्या है, क्योंकि वह ईश्वर द्वारा रचित नहीं है, किन्तु किसी साधारण व्यक्ति द्वारा निर्मित और विपरीत अर्थ का बोधक है। इसलिए यह सत्य नहीं है और न ही वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक है। इस प्रकार आहेतदर्शन की निन्दा करने वाले ईश्वरकारणवादी और आत्माद्वैतवादी दोनों अपने अपने मतों का आग्रह रखते हुए अपने मत की शिक्षा अपने शिष्यों को देते हैं तथा द्रव्योपार्जनार्थ अनेक प्रकार के पाप कर्म करके उनके फलस्वरूप नाना प्रकार के दुख पाते हैं। इसके अतिरिक्त निर्दोष शास्त्रों की निन्दा करने और उनसे विपरीत कुशास्त्र प्रतिपादित जीवहिंसा आदि कुकृत्य करने के कारण उत्पन्न होने वाले अशुभबन्धनों को नष्ट करने में असमर्थ होकर वह संसार चक्र में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। जैसे पक्षी पिंजरे के बन्धन को तोड़ नहीं सकता वैसे ही यह वादी भी संसार चक्र का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं क्योंकि वह अपने द्वारा उपार्जित अशुभ कर्मों से बंधे हुए हैं। वह मोक्ष मार्ग को स्वीकार नहीं करते। उनका मन्तव्य है कि न क्रिया है न अक्रिया है, न नरक है, न नरक के अतिरक्त लोक है। न पुण्य-पाप है, न शुभाशुभ कर्म का फल, न कोई भला है न बुरा, न सिद्ध है, न असिद्ध, न सुकृत है न दुष्कृत। जैन चिन्तक इस मत की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यदि यह मान लें कि प्राणी अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से क्रिया में प्रवृत्त होते हैं तो यह भी मानना पड़ेगा कि अनादिसिद्ध होती है, तथा वही प्राणी की क्रिया में प्रवृत्ति का कारण बनती है, तब फिर ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है?
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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