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________________ आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 79 निर्दोष मानने वाले समस्त प्रवादियों को एकत्र कर प्रत्येक से पूछना चाहिए कि तुम्हें मन की अनुकूलता, दुःखस्वरूप लगती है या प्रतिकूलता? जैसे तुम्हें मन की प्रतिकूलता दुखरूप लगती है वैसे ही समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों व सत्वों को भी मन की प्रतिकूलता दुखरूप लगती है। ये वादी आलम्भार्थी हैं, प्राणियों का हनन करने वाले हैं, हनन करने वालों का समर्थन करने वाले हैं, अदत्त को लेने वाले हैं।225 यद्यपि महावीर कालीन परिव्राजक अदत्त जल का प्रयोग नहीं करते थे, वह जलाशय के स्वामी की अनुमति लेकर ही जल लेते थे।226 इस पर भी जैन श्रमणों का तर्क था कि क्या जल के जीवों ने अपने प्राण हरण की अनुमति दी है? यदि नहीं दी है तब सजीव जल का प्रयोग कर उनके प्राणों का हरण करना अदत्तादान कैसे नहीं होगा? ___ परिव्राजक स्नान, पान आदि सीमित प्रयोजनों से जलकायिक जीवों की परिमित हिंसा करते हैं किन्तु उनके लिए हिंसा सर्वथा अकरणीय नहीं है। जबकि जैनों के लिए सजीव जल का प्रयोग हिंसा और अदत्तादान है। __ भगवान महावीर के युग में कुछ परिव्राजक यह प्रतिपादित करते थे कि वह केवल पानी के जीवों की हिंसा करते हैं, अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते। कुछ श्रमण निरूपित करते थे कि वह केवल भोजन के लिए जीव हिंसा करते हैं, अन्य प्रयोजन के लिए नहीं। भगवान महावीर के शिष्य जंगल में विहार करते तब उचित पानी नहीं मिलता था। अनेक मुनि प्यास से आकुल हो प्राण छोड़ जाते थे। ऐसी स्थिति में कदाचित यह प्रश्न उठा कि विकट परिस्थिति में संचित पानी पी लिया जाये तो क्या आपत्ति है? इन सब निरूपणों और प्रश्नों को सामने रखकर भगवान ने यह प्रतिपादित किया कि जिस साधक के चित्त में किसी एक जीव निकाय की हिंसा की भावना अव्यक्त रहती है, उसका सर्वजीव अहिंसा के पथ में प्रस्थान नहीं होता। अत: साधक की मैत्री सघन होनी चाहिए। उसके चित्त में कभी जीव निकाय की हिंसा की भावना शेष नहीं रहनी चाहिए।227 बौद्धमत शाक्यतापस सूत्रकृतांग द्वितीय उद्देशक के आर्द्रकीय अध्ययन में शाक्य तापसों की चर्चा मिलती है। शाक्य तापस मानते थे कि पाप और पुण्य आन्तरिक भावों के अनुसार ही होता है। द्रव्यत: प्राणिघात न होने पर भी चित्त दूषित होने से प्राणिवध का पाप लग जाता है। उसी प्रकार यदि अज्ञानी मनुष्य को खली मानकर और बालक को तुम्बा मानकर पकाएं तो उन्हें प्राणिवध का पाप नहीं लगता। कोई बौद्ध भिक्षु चाहे उन्हें शूल में पिरोकर आग में पकाएं तो भी उसे प्राणिवध का पाप नहीं लगता, वह
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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