SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा पड़ा है इसी प्रकार शेष पृथ्वियों के नामों की भी उत्पत्ति समझ लेना चाहिए। सातवीं पृथ्वी पर घोर अंधकार है, इसलिए उसका नाम तमस्तमःप्रभा या महातमःप्रभा है। इसके प्रश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन्! रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकावास हैं? अर्थात् नरक-स्थान कितने हैं? यहां 'इससे' शब्द आया है, जो उंगली-निर्देश को सूचित करता है। अर्थात् गौतम स्वामी जिस पृथ्वी पर थे, उसी पृथ्वी को बताकर कहते हैं कि इस पृथ्वी में कितने नरकावास हैं? प्रश्न होता है-जिस पृथ्वी पर गौतम स्वामी रहते थे, उसी पृथ्वी पर हम भी रहते हैं। फिर यह पृथ्वी क्या नरक है? क्या हम नरक पर हैं? लोग नरक से डरते हैं, नरक के नाम से घबराते हैं और नरक में रहना सुनकर अपना अपमान अनुभव करते हैं। लेकिन जैन शास्त्र कहते हैं कि पृथ्वी, रत्नप्रभा पृथ्वी का ही ऊपरी तल है। नरक भी इसी पृथ्वी में हैं। इस पृथ्वी के भीतर ही भीतर तह चली गई है, जिनका हिसाब बारह अन्तर और तेरह प्रस्तर के नाम से बहुत अधिक है। जैसे शरीर में नाभि मध्यभाग में है, इसी प्रकार यह रत्नप्रभा पृथ्वी भी मध्य में है। लेकिन मध्यभाग की सीमा बांधनी ही पड़ेगी। जैसे नाभि के ऊपर मस्तक और नीचे पांव होते हैं, उसी प्रकार रत्नप्रभा भूमि का यह भाग नाभि है, इसके ऊपर का भाग स्वर्ग और नीचे का भाग नरक है। शास्त्र कहता है कि यह भाग है तो उसी पृथ्वी का, लेकिन इस भाग (क्षेत्र) की विशेषता यह है कि स्वर्ग भी इसका दास है। स्वर्ग या नरक में यहीं से जाया जाता है। जैसे एक विस्तीर्ण भूभाग जल से परिपूर्ण हो और बीच में सिर्फ एक छोटा-सा टापू हो तो भी वह सारा प्रदेश जलप्रदेश ही कहलाएगा। अर्थात् अधिकता के अनुसार ही प्रायः व्यवहार होता है। यही बात इस पृथ्वी के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए। पहले नरक की मोटाई एक लाख, अस्सी हजार योजन है और लम्बाई-चौड़ाई एक राजू है। अन्त में दस योजन का एक हिस्सा बचता है, जिस पर मनुष्य और तिर्यंच बसते हैं। यह हिस्सा भी उसी पृथ्वी का है। आप कहते होंगे क्या हम नरक पर बसते हैं? लेकिन साफ-सुथरे रहने पर भी आपका जीवन किस आधार पर टिका हुआ है? 'मूल-मूत्र पर!' उस मल-मूत्र को भी तो नरक ही कहते हैं। अगर मल-मूत्र एक मिनिट के लिए ही सूख जाय तो मनुष्य-जीवित नहीं रह सकता। मनुष्य का - भगवती सूत्र व्याख्यान १५
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy