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________________ कितने आहार की आवश्यकता है? अतएव जब तक पेट न फूल जाय, लोग अन्धाधुन्ध पेट भरे जाते हैं। लोगों की यह आदत ही पड़ गई है। अगर, कोई किसी दिन अपने दैनिक भोजन से कुछ न्यून खाता है तो उसे यह अंदेशा हो जाता है कि आज मैं भूखा हूं- मैंने पेटभर भोजन नहीं किया। आजकल के श्रीमान् लोग नाना प्रकार के स्वादिष्ट मसाले, आचार और चटनी केवल इसीलिए खाते हैं कि भूख न लगने पर भी पेट ठूंस-ठूंस कर भर लिया जाय । ऐसा करने से उन्हें चाहे जिह्वासुख मिलता हो या अपनी श्रीमंताई का अनुभव करके घमंड होता हो, मगर शरीर को बहुत हानि पहुंचती है। संसार में एक ओर गरीब लोग भूख से तड़फ - तडफ कर मर रहे हैं, दूसरी ओर बिना भूख से जबर्दस्ती पेट भरा जाता है और ज्यादा खाने के लिए नाना विधियां काम में लाई जाती हैं। इसी कारण संसार में अंधेर मच रहा है। शास्त्र में कहा है कि खाये हुए आहार में से थोड़े आहार का शरीर के लिए उपयोग होता है, शेष खलभाग के रूप में बाहर निकल जाता है। शास्त्रों में आध्यात्मिकता के साथ ही साथ शरीर - विज्ञान भी कूट-कूट कर भरा है। एक अनुभवी ने बतलाया है कि दस तोला अन्न अगर खूब चबा-चबा कर खाया जाय तो मनुष्य बखूबी जीवित रह सकता है। मगर यहां तो हाल ही और है । जो जितना खा पाता है, वह उतना ही अधिक प्रसन्न होता है । फिर अगर कहीं पराये घर का भोजन हुआ, तब तो कहना ही क्या है? फिर तो यह कहावत चरितार्थ होती है: परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे, मा शरीरे दयां कुरु । परान्नं दुर्लभं लोके, शरीराणि पुनः पुनः ।। अर्थात् - अरे मूढ़ ! पराया अन्न पाकर शरीर पर दया मत कर। शरीर तो बार बार मिलते ही रहते हैं, मगर पराया अन्न मिलना दुर्लभ है। सर्व से देश का आहार करते हैं, इस कथन में बहुत रहस्य छिपा है। जैन सिद्धांत उसे आहार नहीं कहता जो पेट में ठूंस लिया जाता है। वरन् आहार वह सारभूत वस्तु है जो खल के अतिरिक्त होती है और जिससे शरीर का निर्माण एवं पोषण होता है। मुख द्वारा खाया हुआ आहार आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियों में पहुंचता है। वह शरीर के रोएं रोएं में पहुंच जाता है। उस सार - आहार में बड़ी शक्ति होती है । यद्यपि शरीर के विभिन्न भागों में पहुंचता - पहुंचता वह आहार बहुत अल्प मात्रा में ही रह जाता है, मगर वस्तु में यह नियम देखा जाता है कि किसी भी वस्तु के ज्यों-ज्यों भाग होते जाते १६२ श्री जवाहर किरणावली
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
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