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हैं। यह बात दूसरी है कि मर्मस्थान पर चोट पहुंचने के कारण जीव, शरीर का त्याग कर दें, मगर इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि जीव सिर्फ मर्मस्थान में ही है। वास्तव में सम्पूर्ण शरीर में आत्मा रहता है।
अब गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं- भगवन् ! इस प्रकार प्ररूपण करने का क्या कारण है?
तर्क करने का सभी को अधिकार है। तर्क करने से वस्तुतत्व स्पष्ट हो जाता है। मगर तर्क में भी विवेक और श्रद्धा का सम्मिश्रण होना आवश्यक है। शास्त्र में स्थान-स्थान पर कहा है कि अमुक व्यक्ति ने प्रश्न किया, तर्क किया और फिर श्रद्धा की। जब तक तर्क न किया जाय, गाढ़ी श्रद्धा नहीं होती, मगर एकान्त श्रद्धाहीन का तर्क उसे किसी निश्चय पर नहीं पहुंचने देता ।
गौतम स्वामी के तर्क के उत्तर में भगवान् फरमाते हैं- हे गौतम! एक तालाब पानी से लबालब भरा है। उसमें पानी पर पानी भरा है। उस तालाब में किसी पुरुष ने नौका डाली। नौका चली । गौतम, यह बतलाओ कि अगर नौका में सैकड़ों छोटे बड़े छिद्र हों तो उसमें पानी भरेगा या नहीं? गौतम बोले- भरेगा ।
भगवान् ने कहा- वह नौका पानी से पूरी भर गई और डूबकर तालाब के तल भाग में बैठ गई। अब नौका कहां है और पानी कहां? यह भिन्नता देखने में आ सकती है?
'नहीं।’
क्योंकि वह नौका और पानी आपस में मिल गये हैं। जहां जल है वहां नौका है, जहां नौका है वहां जल है ।
इसी प्रकार संसार रूपी हृद में पुद्गल रूपी पानी भरा है। यह पुद्गल रूपी पानी सम्पूर्ण लोक में सर्वत्र भरा हुआ है। संसार रूपी तालाब के पुद्गल रूपी जल में, जीव रूपी नौका है। नौका का धर्म पानी पर तैरना है, परन्तु जिस नौका में छेद है, वह उदाहरण में कही हुई नौका के समान पानी
में डूब जाती है। इस जीव रूपी नौका में छिद्र हैं। उन छिद्रों के द्वारा पुद्गल रूपी पानी आये बिना कैसे रुक सकता है? जीव में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ही आस्रव हैं । इन्ही से कर्म - पुद्गल आते रहते हैं। जैसे मकान में दरवाजा, तालाब में नाला और नौका में छिद्र होते हैं, उसी प्रकार आस्रव जीव में पुद्गल आने के छिद्र हैं। उन्हें समुच्चय रूप से आस्रव कहते हैं।
१८० श्री जवाहर किरणावली