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मकान एक दिन किसी की इच्छा शक्ति में आया और तभी बना। वह इच्छाशक्ति अगर निर्बल होती तो मकान न बनता। लेकिन मकान विषयक इच्छाशक्ति प्रबल थी, इससे मकान बन गया। इसी प्रकार जीव की इच्छाशक्ति उसके जीवन और मरण का कारण होती है। मगर बच्चों के खेल की-सी इच्छा शक्ति से काम नहीं चलता, इच्छाशक्ति में प्रगाढ़ता होनी चाहिए।
प्रकट में देखा जाता है कि मरणासन्न मनुष्य का जीव जब नहीं निकलने लगता है-अटक जाता है, तो उसे लोग पूछते हैं, आप क्या चाहते हैं ? उसके कुछ कहने पर जब उसे संतोष दिला दिया जाता है कि वह काम हो जायगा, तब वह प्राण छोड़ देता है। इस प्रकार जीव ने ही शरीर टिका रक्खा है, इसी कारण भगवान् कहते हैं-'अजीवा, जीव संठिया। अर्थात् अजीव जीव पर आश्रित है। और जीवा कम्मसंठिया' अर्थात् जीव कर्म पर आश्रित है। यहां तक छह प्रकार की स्थिति का वर्णन किया गया है।
सातवें बोल का आशय यह है कि चेतन पदार्थ, जड़ को ग्रहण करके उन्हें संग्रह करता है। यहां चेतन में आत्मा का और जड़ में मन आदि पौद्गलिक वस्तुओं का ग्रहण होता है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा ने मन आदि समस्त वस्तुओं को अपनी सुविधा के लिए संग्रहीत कर रक्खा है । और वे सब उसी आत्मा के सेवक हैं। आत्मा भिन्न पदार्थ है और मन आदि भिन्न हैं। मन आत्मा का साधन है, आत्मा मन का स्वामी है। इसलिए मन की अपेक्षा आत्मा महान् है। शरीर के सब अवयव वास्तव में जड़ हैं-पौद्गलिक हैं। नेत्र देखते हैं, मगर देखने की शक्ति वास्तव में नेत्र की नहीं है। आत्मा की शक्ति के स्रोत विभिन्न इन्द्रियों को प्राप्त होते हैं और तभी वह अपना-अपना काम करती है। इसलिए वास्तविक दृष्टा आत्मा है, जो नेत्रों को साधन बनाकर देखता है। दृष्टि कम हो जाने पर ऐनक लगाया जाता है, मगर ऐनक दृष्टा नहीं है, उसी प्रकार नेत्र भी दृष्टा नहीं हैं। दृष्टा आत्मा है।
इसी प्रकार मन दृष्टा नहीं, वह भी साधन मात्र है। नेत्र, कान, नाक, त्वचा आदि की तरह मन को भी आत्मा का साधन ही समझना चाहिए। आज लोग गहराई में नहीं घुसते इस कारण उन्हें असल तत्व का पता नही चलता। 'जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठि।' बाहर से भीतरी तत्व कैसे दिखाई दे सकता है?
कोई पूछे, दृष्टा बड़ा है या दृश्य? संसार के सारे पदार्थ दृश्य हैं और आत्मा दृष्टा है। अब इन दोनों में बड़ा कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में यह प्रश्न करना ही उचित होगा कि जौहरी बड़ा है या हीरा? हंडिया बड़ी है या उसकी
- भगवती सूत्र व्याख्यान १७१