SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का उपयोग मन, वचन और काय के सहारे होता है। अतएव मन आदि योग कहलाते हैं और आत्मा का मूल स्वभाव उपयोग कहलाता है। रोह प्रश्न करते हैं- भगवन ! अभिमान पहले है या योग पहले है ? भगवान उत्तर देते हैं- दोनों ही अनादि हैं। इन सबको लोकान्त के साथ मिलाकर तथा अलोकान्त के साथ मिलाकर प्रश्न करना। यहां पिछला - पिछला छोड़ते जाना और आगे-आगे का बोलते जाना चाहिए । भगवान् से अपने प्रश्नों का उत्तर सुनकर रोह अनगार ने 'सेवं भंते!' कहा और तप-संयम में विचरने लगे । I कांच में कोई पदार्थ पूर्णरूपेण नजर नहीं आता । केवल पदार्थ की परछाई भर दिखाई देती है । फिर भी फोटो खींचने का प्रयत्न क्यों किया जाता है ? फोटो में स्थूल प्रतिबिम्ब ही आता है, पदार्थ के गुण-दोष नहीं उतरते। फिर भी फोटो उतारने का प्रयास करने का प्रयोजन यह है कि, इससे प्रथम तो कैमरे की शक्ति का विकास होता है, दूसरे ज्ञानियों के लिये छोटी वस्तु भी बड़ा काम देती है। ज्ञानी अपूर्ण अंश को देखकर भी पूर्ण का पता लगा लेते हैं। रोह ने स्वयं कैमरा बनकर भगवान महावीर के अनन्त ज्ञान का फोटो उतारने का प्रयास किया है। कैमरे का जितना परिमाण होता है, उसी परिमाण में फोटो भी बड़ा या छोटा उतरता है। लेकिन फोटो भले ही छोटा हो, उसमें पदार्थ की आकृति आ जाती है और उस फोटो से पूर्ण मूल पदार्थ का पता लगाया जा सकता है। इसी प्रकार रोह के प्रश्नों के दिये हुए उत्तरों विदित हो जाता है कि भगवान अनन्त ज्ञानी हैं। रोह समझते हैं कि भगवान का अनन्त ज्ञान मुझमें नहीं आ सकता, परन्तु उस ज्ञान का छोटा सा फोटो भी अगर मन में रहा तो अनन्त ज्ञान आप ही प्रकट हो जाएगा । अब संक्षेप में यह भी देख लेना चाहिए कि इतने विस्तार के साथ यह प्रश्नोत्तर क्यों किये गये हैं? इस संबंध में टीकाकार कहते हैं- शून्यवादी लोगों का कथन है कि हमें संसार में जो कुछ भी दिखलाई पड़ता है, वह सब भ्रान्ति है । वास्तव में वह कुछ भी नहीं है । न कोई दिखाई देने वाला है, न देखने वाला है, न देखता है । कहीं कुछ भी नहीं है। जैसे स्वप्न में जो सृष्टि दिखाई देती है, यह भ्रममात्र है, उसी प्रकार जागृत अवस्था की सृष्टि भी भ्रममात्र है। शून्यवादी इस प्रकार संसार को शून्यरूप बतलाते हैं, मगर रोह और भगवान् के प्रश्नोत्तरों से यह सिद्ध हो जाता है कि जगत् को एकान्ततः शून्यरूप मानना मिथ्या है। स्वप्न में भी वही वस्तु दिखाई देती है जो वास्तव १५६ श्री जवाहर किरणावली
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy