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'सव्व' का एक रूप होता है-सार्व। जो सब के लिए हितकारक हो वह 'सार्व' कहलाता है। यह ‘सार्व' साधु का विशेषण है। तात्पर्य यह है कि समान भाव से सब का हित करने वाले साधुओं को नमस्कार हो। जैसे जल बिना किसी भेदभाव के सब की प्यास मिटाता है, सूर्य सबको प्रकाश देता है, वह राजा रंक का पक्षपात नहीं करता, इसी प्रकार सच्चा साधु सब का हितकारक होता है। सब का कल्याण करने वाला ही वास्तव में साधु कहलाता है। साधु की हित-कामना किसी सम्प्रदाय या वर्ग विशेष की सीमा में सीमित नहीं होनी चाहिए।
अथवा-'सव्वसाहूणं' पद में षष्ठी तत्पुरुष समास है। यहां सार्व शब्द से अरिहन्त भगवान् का ग्रहण किया गया है। अतएव तात्पर्य यह हुआ कि सब का कल्याण करने वाले सार्व अर्थात् अरिहंत भगवान् के साधुओं को नमस्कार हो। यों तो आचार्य और उपाध्याय आदि भी सब का कल्याण करने वाले हैं परन्तु वे छद्मस्थ होते हैं। अतः उनसे प्रकृतिजन्य किसी दोष का होना संभव है। अरिहंत भगवान् सर्वज्ञ और वीतराग हो चुके हैं। वे सब प्रकार की भ्रमणाओं से अतीत हो चुके हैं। अतएव वे निर्दोष रूप से सब का एकान्त हित करने वाले हैं। उन सर्वज्ञ और वीतराग भगवान् के अनुयायी साधुओं को ही नमस्कार किया गया है।
अथवा-'सव्वसाहूणं' का अर्थ है-सर्व प्रकार के शुभ योगों की साधना करने वाले । अर्थात् समस्त अप्रशस्त कार्यों को त्यागकर जो प्रशस्त कार्यों की साधना करते हैं, वे सर्व साधु कहलाते हैं।। इस व्याख्या से आचार्य ने यह सूचित कर दिया है कि अगर कभी किसी साधु में अशुभ योग आ जाये तो वह वन्दना करने योग्य नहीं है।
अथवा-'सार्व' अर्थात् अरिहंत भगवान् की साधना-आराधना करने वाले 'सार्वसाधु' कहलाते हैं। अथवा मिथ्या मतों का निराकरण करके सार्व अर्थात् अरिहंत भगवान् की प्रतिष्ठा करने वाले भी 'सार्वसाधु' कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि जो एकान्तवादी, मिथ्या मतों का खंडन करके भगवान् के शासन की प्रतिष्ठा करते हैं-स्थापना करते हैं, भगवान् के शासन को युक्ति, तर्क एवं प्रमाण के द्वारा सदृढ़ बनाते हैं, वह सार्वसाधु कहलाते हैं। यहां पर भी 'सार्व' शब्द से अरिहंत भगवान का ही ग्रहण किया गया है।
अथवा प्राकृत भाषा के 'सव्व' का संस्कृत रूप 'श्रव्य' भी होता है और 'सव्य' भी होता है। 'श्रव्य' का अर्थ है श्रवण करने योग्य, और 'सव्य' का अर्थ है अनुकूल या अनुकूल कार्य। साधु शब्द का अर्थ है – कुशल । इस प्रकार ४२ श्री जवाहर किरणावली
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