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रूप से देखते भी हैं। ज्ञानियों द्वारा किये गये इस काल-विभाग से ही अनुभव लगाया जा सकता है कि शास्त्र कितनी सूक्ष्म दृष्टि से लिखे गये हैं।
दूसरा प्रश्न है-हे भगवन्! नारकी जिन पुद्गलों को तैजस कार्मण शरीर के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों की जो उदीरणा होती है, वह भूतकाल में गृहीत पुद्गलों की होती है या वर्तमान काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की या भविष्य में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की होती है?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया-गौतम । नारकी तैजस-कार्मण शरीर के रूप में ग्रहण किये हुए जिन पुद्गलों की उदीरणा करते हैं वे पुद्गल भूतकाल में ग्रहण किये हुए होते हैं, वर्तमान या भविष्य काल में ग्रहण किये हुए या किये जाने वाले नहीं होते।
बौद्ध लोग क्षणिकवादी हैं। वे वर्तमान काल में ठहरने वाली वस्तु ही मानते हैं, भूत और भविष्य काल में किसी भी पदार्थ का रहना नहीं मानते। जो वर्तमान क्षण में है, उसका दूसरे क्षण में समूल नाश हो जाता है। कोई भी पदार्थ वर्तमान के अतिरिक्त किसी भी काल में नहीं रहता। लेकिन जैन शास्त्र ऐसा नहीं मानता। जैन शास्त्र कहता है कि अगर भूतकाल का पुण्य-पाप सर्वथा नष्ट हो जावे और आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध न रहे, तो फिर से भूतकाल के कर्म, वर्तमान में उदित ही न हों। भूतकाल और भविष्यकाल को एकदम अस्वीकार कर देने से संसार के समस्त व्यवहार ही भंग हो जाएंगे। मान लीजिए. एक मनुष्य ने दूसरे को ऋण दिया। कुछ दिनों के बाद ऋण देने वाला मांगने गया तो ऋण लेने वाला कहेगा'- वाह! किसने ऋण दिया और किसने ऋण लिया है! जिसने ऋण दिया था और जिसने ऋण लिया था, वह दोनों तो उसी समय सर्वथा समाप्त हो गये। अब तुम कोई दूसरे हो और मैं भी और ही हूं। इसी प्रकार अगर कर्म भी नष्ट हो जाते हों तो उनका फल भी किसी को भोगना न पड़ेगा और स्वर्ग-नरक आदि की मान्यताएं हवा में उड़ जाएंगी।
उदीरणा भूतकाल में बंधे हुए कर्म की होती है। वर्तमान में कर्म बंध ही रहा, उसकी उदीरणा नहीं हो सकती और भविष्यकालीन कर्म अब तक बंधे ही नहीं हैं। उसकी उदीरणा होगी ही कैसे!
यहां तैजस और कार्मण दोनों शरीरों का कथन क्यो किया गया है ? अकेले कार्मण शरीर का कथन क्यों नहीं किया? इस प्रश्न का उत्तर यह
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २७१