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नारकी जीवों का आहार अशुभ रूप में परिणत होता है, अनिष्ट रूपता प्रकट करता है, कान्त और कमनीय नहीं है। अमनोज्ञ हैं, अमनोगम्य है। इस प्रकार वह आहार पश्चात्ताप का कारण है। वह नीची स्थिति में ले जाता है, ऊंची स्थिति में नहीं ले जाता।
आहार में दोनों प्रकार की शक्तियां है- ऊंची स्थिति में ले जाने की भी और नीची स्थिति में ला पटकने की भी। जो आहार स्वाधीन न हो, परतन्त्र हो, उस आहार को ग्रहण करने वाला नरक में ही समझना चाहिए।
नरक के आहार की बुराई बतलाने के लिए जो विशेषण दिये गये हैं, उनके संबंध में टीकाकार कहते हैं कि यह सब शब्द एकार्थक हैं। फिर भी अतिशय अर्थात् अधिकता प्रकट करने के लिए पृथक-पृथक् अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है।
___ यह चालीसवां द्वार हुआ और पूर्वोक्त संग्रह-गाथा का विवेचन समाप्त होता है। संग्रह-गाथा के विवरण-सूत्र किसी किसी ही प्रति में पाये जाते हैं, सब में नहीं।
२५२ श्री जवाहर किरणावली