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गौतम स्वामी-भगवन्! नारकी जीव आनुपूर्वी से पुद्गलों का आहार करते हैं तो किस दिशा के पुद्गलों का आहार करते हैं? पूर्व आदि में से किसी एक दिशा में स्थित पुद्गलों का या छहों दिशाओं में स्थित पुद्गलों का?
भगवान्- हे गौतम! नियम से छहों दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं।
इस प्रश्नोत्तर को किंचित् स्पष्ट करने की आवश्यकता है। नरक के जीव चौदह राजू लोक के मध्यवर्ती हैं और मध्यवर्ती होने से छहों दिशाएं लगती हैं। त्रसनाड़ी के बाहर के जीव के आहार की तीन, चार, पांच या छह दिशाएं भी होती हैं। पृथ्वीकाय का जीव लोक के कोने में जाकर आहार करता है तो तीन दिशाओं का आहार करता है। इसी प्रकार दो तरफ अलोक और चार तरफ लोक हो तो चार दिशाओं के पुद्गलों का आहार होता है। पांच ओर लोक हो तो पांच दिशाओं के पुद्गलों का, और मध्य में छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार हो जाता है।
पहले वर्ण का साधारण वर्णन किया जा चुका है। यहां उसके अवान्तर भेद बतलाये जाते हैं।
भगवान् कहते हैं- हे गौतम! यह आहार का समुच्चय वर्णन किया गया है। अब नरक योनि और असुरयोनि के जीवों के आहार का अन्तर बतलाते हैं। नरक के जीव जो आहार करते हैं, वह वर्ण से काला और नीला होता है। गंध से दुर्गन्ध युक्त होता है। रस से तिक्त और कटुक होता है। स्पर्श की अपेक्षा भारी, खुरदरा, शीत और रूखा होता है।
निश्चय में यद्यपि पांचों वर्ण विद्यमान है, तथापि व्यवहार में काले और नीले वर्ण का आहार करते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र समझना चाहिए। यहां जो वर्ण रस, गंध और स्पर्श बतलाये गये हैं, वह सब अशुभ समझना चाहिए।
नरक के जीवों के आहार में भेद भी हैं। पहले नरक के जीव जिस प्रकार का आहार करते हैं, दूसरे नरक वाले दूसरी ही तरह का करते हैं। इसी तरह आगे के नरकों का समझ लेना चाहिए।
साथ ही यह स्मरण रखना चाहिए कि नरक के आहार का यहां जो वर्णन किया गया है। वह मिथ्या दृष्टि की अपेक्षा है। भावी तीर्थंकर की अपेक्षा यह वर्णन नहीं है।
नरक का जो वर्णन ऊपर किया गया है, वह यद्यपि सत्य है; तथापि यह भी सत्य है कि जब उपादान अच्छा होता है तो बुराई में से भी अच्छाई निकल आती है। भावी तीर्थंकर पहले से लेकर तीसरे नरक तक रह सकते
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २४५