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इस निराशा को रोकने का सर्वश्रेष्ठ साधन यही है कि फल की आशा ही न की जाय। 'न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी आशा ही न होगी तो निराशा कहाँ से आएगी? आशा ही निराशा की जननी है। सफलता के लिए आशा त्याग की अनिवार्य आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से जैन शास्त्रों में निदान शल्य को त्याज्य कहा है और इसीलिए गीता में भी निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया है। -
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य? त्रायते महतो भयात्।
अर्थात-स्वल्प सा धर्म होने पर भी अपना कल्याण हुआ समझ, घबरा मत उसी से तुझे निर्भयता प्राप्त होगी।
काल के हिस्से के हिस्से करने पर अन्त में 'समय' हाथ आता है। लकड़ी के दो, चार आठ आदि टुकडे करते करते आखिर कभी न कभी यह होगा कि अब और टुकडे नहीं हो सकते। जिस टुकडे के फिर टुकडे नहीं हो सकते वह अंतिम टुकडा परमाणु कहलाता है। इसी प्रकार काल के जिस अंश के विभाग नहीं हो सकते वह अंतिम विभाग 'समय' कहलाता है।
प्रश्न हो सकता है कि स्वल्प धर्म होने पर ही कल्याण समझ लेने से बस हो गया इस तरह की निराशा क्यों नहीं उत्पन्न होगी? इसका उत्तर यह है कि जो व्यक्ति स्वल्प धर्म का भी महान फल देखता है वह आगे के धर्म को कैसे भूलेगा? कलकत्ता की ओर एक डग भरने वाले के संबंध में भी कहा जाता है कि वह कलकत्ता गया कहते हैं मगर ऐसा कहने से वह जाने वाला अगर कलकत्ता जाने से रुक जाय तो मूर्ख गिना जायगा। जब कलकत्ता की ओर एक पैर भरने से ही कलकत्ता गया कहते हैं तो अधिक पैर भरने से क्या वह कलकत्ता से दूर होगा? थोड़ा सा उद्योग सफल होता देखकर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। सोचना चाहिए कि यह थोड़ी सी क्रिया भी निष्फल नहीं है तो अधिक क्रिया निष्फल कैसे हो सकती है? तब आरंभ किये हुए कार्य को आगे बढ़ाने से क्यों रोका जाय? चाहे धर्म हो या राजनीति, सर्वत्र यह बात लागू होती है। ऐसा विचार करने वाला कभी निराश नहीं होगा, बल्कि उसमें नई स्फूर्ति और नया उत्साह उत्पन्न होगा और वह आगे बढ़ता हुआ अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करेगा।
कई लोग कहते हैं-'खादी पहनने से स्वराज्य नहीं मिलेगा, किन्तु तलवार से मिलेगा।' कुछ का कहना है-एक आदमी के विलायती वस्त्र और शराब छोड़ देने से क्या कल्याण होगा?
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २०६