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मगर उसकी ओर आज ही चलना तो आरंभ कर दें। थोड़ा-सा भी क्रोध जीतने से अन्तरात्मा में शान्ति का संचार होगा।
जिसने वास्तविक कल्याण का मार्ग जान लिया है और उस मार्ग पर चलकर अपना कल्याण साध लिया है, उसे ही दूसरे के कल्याण करने का अधिकार प्राप्त होता है। जिसने अपना ही कल्याण नहीं किया है, उसे दूसरे का कल्याण करने का अधिकार नहीं है। वह ऐसा कर भी नहीं सकता। भगवान् ने स्वयं राग-द्वेष को जीत लिया था, इसी से उन्होंने दूसरों को राग-द्वेष जीतने का उपदेश दिया।
बुद्ध-बोधकभगवान् ज्ञानवान् होने से और राग-द्वेष को जीतने से 'बुद्ध' हो गये थे। सम्पूर्ण तत्त्व को जान कर राग-द्वेष को पूर्ण रूप से जीतने वाला 'बुद्ध' कहलाता है। भगवान् नाम के ही 'बुद्ध' अपने सद्गुणों के कारण बुद्ध थे। 'बुद्ध' होने के साथ ही भगवान् ‘बोधक' भी थे। जीव, अजीव आदि तत्त्वों का जैसा स्वरूप भगवान् आप जानते थे, वैसे ही स्वरूप का उन्होंने दूसरों को भी उपदेश दिया है।
भगवान् का उपदेश उनके केवलज्ञान का फल है। उस उपदेश में कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जो अत्यन्त अल्प ज्ञान के कारण हमें दिखाई न दें। फिर भी उन पर शंका करने का कोई कारण नहीं है। सर्वज्ञ की वाणी में असत्य की सम्भावना ही नहीं की जा सकती। भगवान् ने स्वयं कहा है कि अगर तुम्हें परलोक सम्बन्धी बातें नहीं दिखती हैं तो भी मेरे कथन पर विश्वास करो। कालान्तर में साधना के द्वारा तुम्हारा और मेरा स्वरूप समान हो जायेगा। भगवान् ने गौतम से भी यही बात कही है कि यह बात मैं ही देखता और जानता हूं। मगर मेरी बात पर विश्वास कर। तेरी और मेरी दृष्टि एक हो जायेगी।
मुक्त-मोचकभगवान् बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रंथि से मुक्त थे, अतएव उन्हें 'मुक्त' कहा गया है। यहां यह आशंका की जा सकती है कि बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से मुक्त हुए बिना कोई बुद्ध और बोधक नहीं हो सकता। जो स्वयं बुद्ध है और दूसरों का बोधक है, वह ग्रंथि से मुक्त होगा ही। जैसे लखपति हुए बिना कोई
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १२३