SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बढ़ती ही है, घटती नहीं है और किसी प्रकार के निश्चय पर पहुंचना कठिन हो जाता है। इसी बात को लक्ष्य में रखकर शास्त्रकारों ने कह दिया है कि धर्म, तर्क द्वारा बाह्य परीक्षा की चीज नहीं है। परीक्षा करनी है तो इसकी आन्तरिक परीक्षा करो। तर्क का आधिक्य बुद्धि में चंचलता उत्पन्न करता है और अन्त में मनुष्य सांशयिक बन जाता है। केले के वृक्ष के छिलके उतारोगे तो क्या पाओगे ? सिवाय छिलकों के और कुछ भी न मिलेगा। अगर उसे ऐसा ही रहने दोगे और उसमें पानी देते रहोगे तो मधुर फल प्राप्त कर सकोगे। जब केले का वृक्ष छिलके उतारने पर फल नहीं देता और छिलके न उतारने पर फल देता है तो छिलके क्यों उतारे जाएं? यही बात धर्म के विषय में समझनी चाहिए। अनेक लोगों का तर्क-वितर्क करके धर्म के छिलके उतारने का व्यसन-सा हो जाता है। मगर यह कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं है। ज्ञानी पुरुष धर्म के छिलके उतारने के लिए उद्यत नहीं होते, वे धर्म के मधुर फलों का ही आस्वादन करने के इच्छुक होते हैं। . शास्त्र रूपी आम में मिठास की भांति तप, क्षमा और अहिंसा की त्रिपुटी का होना आवश्यक है। जिसमें इन तीन बातों की शिक्षा हो वही शास्त्र है, अन्यथा नहीं। यह तीनों बातें परस्पर सम्बद्ध हैं। भगवान महावीर ने दान; शील और भावना रूप जो चतुर्विध धर्म प्ररूपित किया है वह इतना प्रभावशाली एवं असंदिग्ध है कि उससे भगवान् का धर्मचक्रवर्ती होना सिद्ध है और यह भी सिद्ध है कि वे छदम से सर्वथा अतीत हो चुके थे। जिन ज्ञापकभगवान् छद्म से अतीत होने के साथ ही जिन हैं। राग द्वेष आदि आत्मिक शत्रुओं को पराजित करने वाला जिन कहलाता है। राग आदि दोषों को जीतने के लिए ज्ञान की अपेक्षा रहती है। राग-द्वेष आदि शत्रुओं को पहचानना और पहचान कर उन्हें पराजित करने के उपायों को समझना, ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। ज्ञानी पुरुष ही रागादि को पराजित कर सकता है। यों तो अचेत अवस्था में पड़ी हुए आत्मा में भी राग-द्वेष प्रतीत नहीं होते, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अचेत आत्मा राग-द्वेष को देखती १२० श्री जवाहर किरणावली
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy