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श्रुत ज्ञान को चक्षु क्यों कहा गया है? इसका उत्तर यह है कि चर्म- - चक्षु मनुष्य किसी वस्तु को देखकर अच्छी या बुरी समझते हैं। उनका यह ज्ञान सीमित ही है। किसी खास सीमा तक ही वे अच्छाई या बुराई बता सकते हैं। अतएव इन आंखों से दीखने वाली शुभ वस्तु अशुभ भी हो जाती है और अशुभ, शुभ भी दीखने लगती है । इस प्रकार मानवीय चक्षु भ्रामक भी हो जाता है। लेकिन तात्विक अच्छाई या बुराई बताने वाला श्रुत ज्ञान ही है। श्रुत ज्ञान आप्त-जन्म होने के कारण भ्रामक नहीं होता। इसीलिए कहा गया है कि वही मनुष्य सच्चा नेत्रवान् है, जिसे श्रुत का लाभ हुआ है, क्योंकि श्रुतज्ञान रूपी चक्षु से वह वस्तु की वास्तविक बुराई या भलाई देख सकता है कि यह पदार्थ हेय है, यह उपादेय है और यह उपेक्षणीय है । अतएव जिसे श्रुत- नेत्र प्राप्त नहीं हैं, उसे अन्धा ही समझना चाहिये ।
जैसे जंगल में बन्धे हुए धनिक की आंखें खोल देने से और उसे अभीष्ट मार्ग बताने से सार्थवाह चक्षुर्दय और मार्गर्दय कहलाता है, उसी प्रकार संसार रूपी वन में, रागादि विकार रूपी ठगों ने, आत्मा रूपी धनिक को बांध कर इसका धर्म रूपी धन छीन लिया है और कुवासना की पट्टी बांधकर इसे अंधा बना दिया है और विपत्ति में डाल दिया है। भगवान् महावीर आत्मा के ज्ञान नेत्र पर पड़े हुए पर्दे को हटाकर श्रुतधर्म रूपी चक्षु देते हैं और निर्वाण का मार्ग बतलाते हैं। इस कारण भगवान् चक्षुदाता और मार्गदाता हैं।
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सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय मोक्ष मार्ग हैं। भगवान् ने इसका वास्तविक स्वरूप जगत् को प्रदर्शित किया है, अतएव वह मुक्तिमार्ग के दाता कहलाते हैं।
जैसे संसार में मार्ग भूले हुए को और चोरों से लूटे को नेत्र देकर निरुपद्रव स्थान पर भेज देने वाला उपकारी माना जाता है, उसी प्रकार भगवान् श्रुत धर्म रूपी चक्षु देकर मोक्ष रूपी निर्विघ्न स्थान पहुंचा देते हैं। वहां पहुंच कर जीव सदा के लिए अनन्त सुख का भोक्ता और सभी प्रकार की उपाधियों से रहित बन जाता है। अतएव भगवान् परमोपकारी हैं। 1
शरणदय
चक्षुदाता और मार्गदाता होने के साथ ही भगवान् शरणदाता भी हैं । शरण का अर्थ है- त्राण । आने वाले तरह-तरह के कष्टों से रक्षा करने वाले को शरणदाता कहते हैं । भगवान् की शरण में आने पर जीव को कष्ट नहीं श्री भगवती सूत्र व्याख्यान
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