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काम, चाहे किसी के नाम पर किये जावें, बुरे ही हैं। बुरे कामों में शरीक होना भले आदमियों का कर्त्तव्य नहीं है।
कल्पना कीजिए, एक आदमी बंधा पड़ा है। दो आदमी उसके पास पहुंचे। उनमें से एक आदमी ने उसे आश्वासन दिया। कहा-'भाई डरो मत, तुम्हारे कष्टों का अन्त आ रहा है' इसके विरुद्ध दूसरा कहता है-'अजी, यह बंधा हुआ है। कुछ बिगाड़ तो सकता नहीं, इसके कपड़े छीन डालो।'
बताइये, इन दोनों में कौन उत्तम पुरुष है? आपके हृदय की स्वाभाविक संवेदना किसकी ओर आकृष्ट होती है? निस्सन्देह अभय देने वाला ही उत्तम है और प्रत्येक का हृदय इसी बात का समर्थन करेगा। भगवान् ने किसी को अंधकार में नहीं रक्खा। उन्होंने कहा-पहले मुझे भी पहचान लो। अगर मुझ में अभयदान आदि का गुण दिखाई दे तो मेरी बात मानो, अन्यथा मत मानो। इस प्रकार संसार-वन में बन्धे हुए लोगों को भगवान् ने ज्ञान-चक्षु दिये हैं।
जैन धर्म किसी की आंखों पर पट्टा नहीं बांधता अर्थात् वह दूसरों की बात सुनने या समझने का निषेध नहीं करता। जैन धर्म परीक्षा-प्रधानता का समर्थन करता है और जिन विषयों में तर्क के लिए अवकाश हो उन्हें तर्क से निश्चित कर लेने का आदेश देता है। जैन धर्म विधान करता है कि अपने अन्तर्ज्ञान पर से पर्दा हटाकर देखो कि आपको क्या मानना चाहिए और क्या नहीं।
भगवान् ने ज्ञान-चक्षु देकर आत्मा को उसके स्थान का मार्ग बतलाया। भगवान् ने कहा तू मेरी ही आंखों से मत देख-अर्थात् मेरे ही बताये रास्ते पर मत चल, किन्तु तू स्वयं भी अपने ज्ञान-चक्षु से देख ले कि मेरा बतलाया मार्ग ठीक है या नहीं। तू अपने नेत्रों से भी देखकर मार्ग का निश्चय करेगा तो अधिक श्रद्धा और उत्साह के साथ उस पर पर चल सकेगा।
__ मित्रों! किसी के कह देने मात्र से अथवा अमुक शास्त्र के भरोसे मत रहो। अपने आप अपने मार्ग का निश्चय करो। अगर स्वतः विचार करने पर दया का मार्ग तुम्हे भला मालूम हो, फिर अरिहंत की शरण ग्रहण करना।
यहां एक प्रश्न हो सकता है कि धूर्तों द्वारा ठगा गया वह धनिक अपने घर का पता जानता था, लेकिन हमें क्या मालूम कि हम कहां से आये हैं? ऐसी दशा में हम अपने घर की कैसे खोज करें और कैसे वहां तक पहुंचे?
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिस समय आपकी आत्मा अपना स्थान खोजने के लिए खड़ी हो जायेगी, उस समय उसे यह भी मालूम हो जायेगा कि इसका घर कहां है? आत्मा में यह स्वाभाविक गुण है कि खड़ा होने के
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १०६