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चक्खुदए- मग्गदए
भगवान् में केवल अनर्थ - परिहार अर्थात् दुःख से मुक्ति देने का ही गुण नहीं है, अपितु अर्थ अर्थात् इच्छित वस्तु की प्राप्ति भी कराते हैं ।
भगवान् स्वयं अकिंचन् हैं - उनके तन पर वस्त्र नहीं, साथ में कोई संपदा भी नहीं, तिल - तुष मात्र परिग्रह नहीं, किसी भी वस्तु को पास रखते नहीं, फिर वे इच्छित अर्थ कैसे और कहां से देते हैं? इसका समाधान यह है कि संसार के मोह एवं अज्ञान से आवृत जन जिसे अर्थ कहते हैं वह वास्तव में अर्थ नहीं अनर्थ है । वह अर्थ - अनर्थ इस कारण है कि उससे दुःखों की परम्परा का प्रवाह चालू होता है जो दुःख का कारण है, उसे अनर्थ न कह कर अर्थ कैसे कहा जा सकता है? भगवान् अनर्थ से छुड़ाने वाले हैं और अर्थ देने वाले हैं। अर्थ वह है जिससे दुःख का दावानल शान्त होता है और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है । भगवान् ऐसे ही अर्थ को देने वाले हैं, क्योंकि वे 'चक्षु' देने वाले हैं, सुख का मार्ग बताने वाले हैं, शरण देने वाले हैं, धर्म देने वाले हैं और धर्म का उपदेश देने वाले हैं। यह बात एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट रूप से समझी जा सकेगी।
एक धनी आदमी धूर्तों के धोखे में आ गया। वह धन लेकर धूर्तों के साथ जंगल में गया। जंगल में पहुंच जाने पर धूर्तों ने धनिक को बांध लिया, उसकी आंखों पर पट्टी बांध दी और मार पीट कर उसका धन छीन कर चलते बने । धनिक बंधा हुआ जंगल में कष्ट पा रहा था। कहीं कुछ भी, खटका होता कि उसका हृदय कांपने लगता था । उसके हाथ-पैर बंधे थे, अपनी रक्षा करने में असमर्थ था । इस कारण भय भी अधिक बढ़ गया था ।
कुछ समय पश्चात् एक सार्थवाह उधर से निकला। उसके रथ की और घोड़ों के टाप की आवाज सुनकर वह धनिक आप ही आप कहने लगा- 'अरे भले मानुसों! तुम ले गये सो ले गये, ले जाओ, अब क्यों कष्ट देने आये हो?' धूर्तों की मार से वह इतना घबराया हुआ था कि आहट होते ही वह समझता था कि वही धूर्त फिर आ रहे हैं और मुझे मारेंगे।
निक की यह चिल्लाहट सुनकर सार्थवाह ने सोचा मैंने इससे कुछ भी कहा नहीं इसका कुछ किया भी नहीं; फिर भी यह तो कुछ कह रहा है, उससे प्रकट है कि यह सताया गया है और भयभीत है। मुझे धूर्त समझने में इस बिचारे का कोई अपराध नहीं है, क्योंकि इसकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई है ।
१०६ श्री जवाहर किरणावली