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कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर के समय में चाहे उपसर्ग दूर हुए हों, चाहे शान्ति हुई हो, लेकिन आज जो बड़े-बड़े दुःख आते हैं-जिन दुःखों को हम दैवी आपत्ति कहते हैं, उनके सामने यह 'पुरुषवरगन्धहस्ती विशेषण क्या काम दे सकता है? इसका उत्तर यह है कि अगर इस पाठ में शक्ति न होती तो आज इसका पाठ करने की आवश्यकता ही नहीं थी। मगर भगवान् का गन्धहस्तीपन हृदय में स्थापित करने के लिए जिस उपाय की आवश्यकता है, उसके अभाव में वह हृदय में कैसे आ सकता है? सुदर्शन सेठ के हृदय में भगवान् के गन्धहस्तीपन की भावना मात्र आई थी। उस भावना मात्र से सुदर्शन इतना बलवान् बन गया कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। 1141 मनुष्यों को मारने वाला, अस्त्र-शस्त्र और सेना से युक्त और बुद्धि का धनी श्रेणिक राजा जिसका सामना नहीं कर सकता था, जिसके भय एवं आतंक से विवश होकर श्रेणिक ने नगर के फाटक बन्द करवा दिये थे, और नगर के बाहर जाने की मनाई कर दी थी, जिसके नाम मात्र से बड़ों-बड़ों के कलेजे कांपने लगते थे, उस अर्जुनमाली को सुदर्शन ने सहज ही परास्त कर दिया था। मगध का सम्राट श्रेणिक जिस अर्जुनमाली का कुछ न बिगाड़ सका उसे भगवान् के एक भक्त ने अनायास ही अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग किये बिना ही पराजित कर दिया ! जिसके आतंक के सामने श्रेणिक का शस्त्र-तेज ठंडा पड़ गया था, उसका सामना करने के लिए किसने क्षत्रियत्व प्रकट किया, कौन क्षत्रिय बन कर सामने आया? सुदर्शन वैश्य था, मगर महावीर का भक्त था। उसने कैसा क्षात्र तेज प्रकट किया, इस पर विचार करना चाहिए।
यह बात समझो कि हम बनिये हैं-ढ़ीली-ढाली धोती वाले वैश्य हैं। यह भी मत समझो कि लड़ने का काम केवल क्षत्रियों का ही है, हम कैसे लड़ें! नहीं, आप लोग वैश्य बनाये गये थे आप बनिया नहीं थे। आप किसी जमाने के क्षत्रिय हैं। आप महाजन हैं। आप जगत के लिए आदर्श बनाये गये थे। जगत को आप का अनुकरण करने का उपदेश दिया गया था।
महाजनो येन गतः स पन्था : धीरे-धीरे आप व्यापार में पड़ गये। व्यापार में पड़ने पर बहुत कम लोग कपट से बच पाते हैं। अपना मतलब निकालने के लिए, व्यपारी लोग अपना आपा भूल कर दीनता दिखाने लगते हैं। इस प्रकार व्यापार में पड़ने पर और दीनता बताने से आपके जीवन में कायरता ने प्रवेश किया और आप ढीली धोती वाले बनिया बन बैठे। आपके पूर्वज बड़े वीर थे। वे विदेशों से धन लाकर स्वदेश की समृद्धि की वृद्धि में महत्वपूर्ण भाग लेते थे। पालिक
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान ६७