SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आओ संस्कृत सीखें 4301 10. आज मैं मित्र के साथ खाना खानेवाला हूँ, इसलिए दिव्य (सुंदर) रसोई बना। 11. परलोक में सुख स्वरूप धर्म की मैं लेश भी उपेक्षा नहीं करूंगा। 12. मुझे कोई भी गलत मार्ग पर ले जाने में समर्थ नहीं है, इसलिए परलोक में सुख देने वाले मार्ग को मैं छोडूंगा नहीं । 13. मलयकेतु (कहता हैं), ‘आर्य ! कोइ मनुष्य है, जो कुसुमपुर जाता है, अथवा वहाँ से आता है। 14. राक्षस - (कहता हैं), ‘अब जाने आने का काम पूरा हो गया है, थोड़े दिनों में हम सब वहाँ जायेंगे। 15. हा ! हा ! हा ! वीर ! क्या किया? इस अवसर पर मुझे अलग किया? क्या बालक की तरह आपके पीछे पडता, या केवलज्ञान में भाग मांगता? क्या मुक्ति में जगह कम पड़ती, या क्या आपको भार रूप होता? इसलिए आप मुझे छोड़कर चले गये और इस प्रकार वीर ! वीर ! इस प्रकार कहते गौतम के मुख में “वी' रह गया। 16. 'चाणक्य से चलित भक्तिवाले मौर्य को मैं आराम से जीत लूंगा' इस कारण अभी जो यह व्यूह आपके द्वारा वास्तव में रचा है, वह सब (व्यूह) हे शठ! निश्चय ही तेरे ही दूषण के लिए होगा । 17. इसके जैसा पति कौन होगा, इस प्रकार रात दिन उसके पिता जनक राजा चिंता करते थे। 18. तुण से भी हल्की रुई है, रुई से भी हल्का याचक है, वह (याचक) वायु द्वारा क्यों नहीं ले जाया गया? मुझ से भी प्रार्थना करेगा, मांगेगा। 19. पुत्र वनवास जाएगा और पति प्रव्रज्या लेंगे, यह सुनकर भी हे कौशल्या ! तेरा हृदय विदीर्ण नहीं हुआ, तू वज्रमयी है। 20. प्रतिज्ञा से आप भी अगर चलायमान होते हो, तो हे प्रभो ! निश्चय ही समुद्र मर्यादा का भंग करेगा। 21. दीपक के बिना जैसे अंधेरे में नहीं रह सकते उसी प्रकार निर्मल केवलज्ञान रूपी प्रकाश वाले आपके बिना, इस भव में हम कैसे रहेंगे ? 22. आप रक्षण करने वाले हो तो, सज्जनों को धर्म क्रिया में विघ्न कहाँ से आएगा? सूर्य तपता हो तो अंधकार कैसे प्रगट होगा ?
SR No.023124
Book TitleAao Sanskrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivlal Nemchand Shah, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy