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________________ आओ संस्कृत सीखें 1100, हस्तनी अवेविषि अवेविष्वहि अवेविष्महि अवविष्ठाः अवेविषाथाम् अवेविड्ढ्वम् अवेविष्ट अवेविषाताम् अवेविषत . विध्यर्थ वेविषीय वेविषीवहि वेविषीमहि वेविषीथाः वेविषीयाथाम् वेविषीध्वम् वेविषीत वेविषीयाताम् वेविषीरन् आज्ञार्थ वेविषै वेविषावहै वेविषामहै वेविश्व वेविषाथाम् वेविड्ढ्वम् वेविष्टाम् वेविषाताम् वेविषताम् वर्तमान कृदन्त : पिप्रत् इयत्, बिभ्रत् ददत् दधत् नेनिजत् आदि के तीनों लिंगों के रूप जक्षत् की तरह होंगे। आत्मनेपद में : बिभ्राणः, जिहानः ददानः दधानः नेनिजानः । कर्मणि में रूप : पृ - प्रियते हा - जाना - हायते ऋ - अर्यते (पाठ 6, नियम-4) मा - मीयते, दा - दीयते धा - धीयते निज-निज्यते कृदन्त : प्रियमाणः, हायमानः 10. तकारादि कित् प्रत्ययों पर दो, सो, मा और स्था धातु के अंत्य स्वर का इ नित्य होता हैं तथा छो और शो धातु के अंत्य स्वर का इ विकल्प से होता है। उदा. दितः। अवसितः। सित्वा। मितः। मितिः । स्थितः। स्थित्वा। छितः। छातः। निशितः। निशातः। विरुद्ध उदा. अवसाय । निर्माय । 11. स्वरांत धातु को य प्रत्यय लगाने पर विध्यर्थ कृदन्त बनता है, तब आकारांत धातु के आ का ए होता हैं।
SR No.023124
Book TitleAao Sanskrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivlal Nemchand Shah, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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