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(५) तण्डुलवेयालिथ – ( तण्डुलवैतालिक ? ); (६) चन्दाविज्झय – (or चन्दाविज्ज or चन्दावेज्जा ? ); (७) देविंदत्थव - ( देवेन्द्रस्तव ); (4) गणिविज्जा ( गणिविद्या); ( ९ ) महापच्चक्खाण - ( महाप्रत्याख्यान ); (१०) वीरत्थव - (वीरस्तव ).
IV. Slx Chheda Sūtras :
(१) निसीह – (निशीथ ); ववहार - ( व्यवहार ); (४) दसासुयक्खन्ध— ( दशाश्रुतस्कन्ध ); पंच्चकप्प – ( पञ्चकल्प ).
V. Four Mūla Sūtras :
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(२) महानिसीह - महानिशीथ; (३) आयारदसाओ - ( आचारदशा : ); or विहक्कप्प — ( बृहत्कल्प );
(५)
(६)
( १ ) उत्तरज्झयण - ( उत्तराध्ययन); (२) आवस्सय - ( आवश्यक ); (३) दसवेयालिय- ( दशवेकालिक ); (४) पिण्डनिज्जुत्ति - (पिण्डनिर्युक्ति ). VI. An unnamed group of two works :
T (1) अङ्गप्रविष्ट (12)
(१) नन्दित्त - ( नन्दी सूत्र ); (२) अणुओगदार ( अनुयोगद्वार ). The above list is given by J. Charpentier in his edition of the उत्तराध्ययनसूत्र. Dr. Buhler gives 5-7 of the उपाङ्गs in the order 6, 7, 5. There are also other lists : e. g. The one given by Rajendralal Mitra (Notices of Sk. Mss. III. 67 ) enumerates 50 works instead of 45. In the canon itself, in the नन्दीसूत्र composed by देवर्द्धिगणिन्, we get the following classification:
श्रुत - ज्ञान I
/
(II) आवश्यक (6)
अप्रविष्ट (or अङ्गबाह्य ).
(III) कालिक
(31)
आवश्यकव्यतिरिक्त
(IV) वैकालिक (29)