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॥ श्रीजिनायनमः ।।..
॥ श्रीसमकीतविचारगर्भित-महावीर
जिनस्तवन ।। (मूळ तथा अर्थ सहित )
Exaxxxxxxxsaree दुहा-प्रणमी पद जिनवरतणां, जे जगने अनुकूल ॥
जाम पसाये में लघु, समकीतरयण अमूल ॥१॥ ते जिम वीरे उपदिश्यु, परखदमध्य अनूप ।
तेम हुँ वर्णवशुं हवे: समकीत शुद्धस्वरुप ।। २ ॥ - अर्थ-आखा जगतने अनुकूल एवा जिनेश्वरप्रभुना पदकमळने प्रमाण करुं छु , कारण के जेना प्रसादथी अमू य एवं सम्य. स्त्वरत्न में प्राप्त क्यु छे, ते अनुपम एवा समकीतनुं श्द्ध स्वरुप श्रीवीरपरमा माए बार परखदा मध्य जेवी रीवे वर्णव्युं छे, तेवी रीते हुं पण अत्र कहुं हुं ॥२॥
॥ ढाक पहेली ॥ ए छोंडी किहां राखी ॥ ए देशी ॥ एकविध दुहविध त्रिविध चविध वली, पणविध दसविध ज.णो। ऐ समकीतशिवतरतुं बीजक, संप्रतिपरें मन आणोरे प्राणी ॥ समकीत शुद्ध आराधो, जेम शिवमारग साधोरे. प्राणी ॥शास०॥ए आंकणी। ___ अर्थ-एक, बे, त्रण, चार, पांच यावत् दश प्रकारे सम्यक्व कई छे, ते मोक्षरुपी वृक्षनुं बीज छे, अने ते संप्रति राजानों पेठे भन्यजीवोए हृदयमा आणवं, कयु छ के-एगविह, दविह,