________________
( ८२ )
मूल तथा भाषांतरः
तिचने पहेलो पांच पर्याप्तओ होय छे, तथा संज्ञी - गर्भज तिर्थ
होने छए पर्याप्त होय के.
गन्भय नर निरएस छप्पिय पज्जांत पंच देवाण । जं तेप्सिं वयमाणं दोन्ह व पज्जत्ति समकालं ॥३४॥
अर्थ -- गर्भज मनुष्यो अने नारकीओने छ पर्याप्सिओ होय छे, तथा देवताओने पांच पर्याहिओ होय छे, कारणके देवताओ वचन अने मन संबंधी वे पर्याप्तिओ समकाळे ( एकी वखते) ज थाय के. श्रीराजप्रक्रीय उपांग विषे कां छे के - " स्थार पछा ते सूर्याभ देवता पांच प्रकारमा पर्याप्त भावने पाम्यो. ते आ प्रमाणे आहार पर्याप्त इन्द्रिय पर्याप्त, शरीर पर्याप्ति, उच्छास पर्याप्ति तथा वचन पर्याप्ति. " ३४.
उरलवे उदाहारे छह वि पजन्ति जुगवमारंभो । तिरहं पढमेगसमए बीआ अंतोमुहुत्तिआ हवइ ||३५||
अर्थ - औदारिक, वैक्रिय अने आहारक शरीरवाळाने छए पर्याप्तओनो आरंभ समकाळेज थाय छे. तेमां ते त्रणे शरीरवाळाने पहेली आहार पर्याप्त एक समयमा थाय छे। अने बीजी शरीर पर्याप्त अंतर्मुहूर्त थाय छे. ३५.
पिहू पिहू असंखसमइय अंतमुहुत्ता उरालिचउरो पि । पिहू पिहू समया चउरो हुंति विउद्दिआहारे ॥ ३६ ॥
अर्थ -- औारिक शरीरवाळाने छेट्टी चार (इंद्रिय, उच्छास, वचन अने मन ) पर्याप्तिओ जदा जूदा असंख्य असंख्य समयवाळा अंतर्मुहूर्त थाय छे, तथा वैक्रिय अने आहारक शरीरवाळाने ए चारे पर्याप्त भिन्न भिन्न समये समये थाय छे एटले के पहेले समये इंद्रिय पर्याप्त, बीजे समये उच्छास पर्याप्त, त्रीजे समये वचन पर्याप्ति अने चाये समये मन पर्याप्ति. ए प्रमाणे थाय छे. ३६