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मूलतयां मातर. अमे लिंगकुसीलं तु, तव कुसीलस्स ठाणए विति । निग्गंथो पुण गंथाओ, मोहाओ निग्गओ जो सो ॥२८॥ अने-अन्य आचार्य | ठाणए-स्थानके मोहाओ-मोहथी लिंगकुसील-लिंग
बिति-कहे छे निग्गओ-निर्गत, नी. कुशील . निग्गयो-निर्मन्यः
पुण-वळी तु-वळी
| कळे लो तष कुतीकस्स-तप- गयाओ-अन्य (पन्ध. जो-जे कुशीलनान ) थी. सो-ते.
अर्थः-अन्य आचार्य तपकुशीलना स्थानके लींगकुशील कहे छे. (हवे निर्गन्यना चोथा भेद निर्गन्यनो अर्थ कहे छे.) जे मोह रूप ग्रन्थथी एटले बन्धनयी नीकळ्यो तेने निर्गन्य कहीए. २८. उवसामओय खवओ, दुहा निग्गंथो दुहावि पंचविहो। पढमसमओ अपढमो, चरमाचरमो अहा सुहुमो ॥२९॥ ऊवसामओ-उपशामक पढमसमओ-प्रथम- चरम-चरम समय खवओ-क्षपक... समय
अचरमो-अचरमदहा-बे प्रकारे. | अपटमो-अप्रथम समय पंचविहो-पांच प्रकारे | समय
महासुहुमो यथासूक्ष्मः अर्थः--उपशामक अने क्षपफ एम बे प्रकारे निग्रन्थः ते बनेना' पांच प्रकार:-प्रथम समय, अप्रथमसमय, चरम समय, अचरमसमय, यथासूक्ष्म. २९.
विवेचना-निर्गन्थना चोथाभेद निर्गन्थना वे प्रकार हैं:१ उपशमक निर्गन्य-जे मोहनीय कर्मनो उपशमावनार होयते. २क्षपक निर्गन्थ-जे मोहनीम कर्मनो क्षय करनार होय ते. आ बने प्रकारना निर्गन्थना पांच पांच प्रकार:-१ प्रथम समय निग्रन्य, २. अप्रथम समय निर्ग्रन्थ, ३. चरम समय निर्ग्रन्थ, ४ अचरमसमय निग्रन्थ, ५ यथावक्ष्म निग्रन्या २९.
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