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________________ ४८] 66 66 66 66 66 66 .. 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 66 64 66 66 66 66 २. वृद्धि - द्वारम् सद्योऽन ऽर्पणदोष-कथा [ माथा-8 श्रेष्ठी च लुण्टाकैर्हतः । मुत्वा तत्रैव पुरे निर्दय दरिद्र कृपण- महिष-वाहक- गृहे महिषोऽभूत् । तत्राऽपि च सदा नीरा-ssदि - भारं प्रति-गृहं वहन उच्चैस्तर-भू-चटना-हो- -रात्र-भार- बहन बहु-भुत्-तृट्-सदा-निर्दय - नाड़ीघाता - sऽविभिः महा-व्यथां चिरं सेहे । सः अन्ये -: नव्य-निष्पद्यमान - चेत्य - जगती - कृते जलं वहन चैत्या - Sai-ssविकं दृष्ट्वा जात-जाति-स्मृतिः चैत्यं कथमप्यS - मुञ्चन् ज्ञानि वचसा - प्राग्-भव-पुत्रैः द्रव्यं दत्त्वा महिष- पालकान्मोचितः ततः तै: सहस्र - गुणितेन प्राग्- भविक - देव-देय दानेन च अनृणीकृतोऽसौ अन- शनेन स्वर्गतः, क्रमात् मोक्षं च ।"
SR No.023117
Book TitleDravya Saptatika Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLavanyavijay Gani, Nirupamsagar
PublisherJain Shwetambar Sangh Pedhi
Publication Year1968
Total Pages432
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size21 MB
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