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________________ नहीं होता, क्योंकि वे लोग अपना परिचय अपने ग्रन्थोंमें नहीं दे सके । निरुकारोके संबंधमें भी यही बात है। वे लोग अपना परिचय अपने निरुक्तों या अन्य ग्रन्थोमें नहीं दे गये हैं। जिनके ग्रन्थोंका पता नहीं, किसी कारणवश नष्ट हो गये, उनके सम्बन्ध में तो बात ही छोड़ दी जाय | जिनके ग्रन्थोंकी उपलब्धि है उन ग्रन्थोंमें भी उनका परिचय नहीं प्राप्त होता । इसका कारण लगता है कि वे • अपना परिचय किसी ग्रन्थमें लिखना अपनी योग्यताका विज्ञापन करना समझते होंगे। फलतः वे लोग अपना परिचय नही दे सके । व्यक्तिका भावनात्मक परिवर्तन समय एवं परिस्थिति के अनुसार होता रहता है। शायद उस युगकी भावना उसी रूप में परिपुष्ट हुई हो।आजके व्यक्तियोंमें उस भावनाका ठीक विपरीत रूप प्रतिलक्षित होता है। चाहे उनके ग्रन्थकी उत्तमता न भी हो लेकिन परिचयका गंभीर आडम्बर उनके ग्रन्थोंमें अवश्य होगा। इसका तात्पर्य यह नहीं कि ग्रन्थकार अपना परिचय दें ही नहीं। परिचयको परिचय की सीमामें व्याप्त होना चाहिए, जो किसी भी समय निरवच्छिन्न उपादेय होगा। ग्रन्थकारोंका परिचय किसी भी ग्रन्थके अध्ययन का अनिवार्य अंग है। __ वैदिक ऋषियों द्वारा बोये गये निर्वचनके बीज ब्राह्मण गन्थोंमें पल्लवित हुए हैं। पुनः वे ही निरुक्तकारके समयमें परिपुष्ट एवं विकसित हुए । निर्वचनके विकसित रूपोंका पता निरुक्तके निर्वचनोंसे हो जाता है। पुनः निरुक्तमें चर्चित विभिन्न निरुक्तकारोंके सिद्धान्त और भी इस तथ्य को प्रमाणित कर देते हैं। उन निरुक्तकारोंके सम्बन्ध में जानकारीके लिए आज जो सामग्री उपलब्ध है, वह है निरुक्तकारोंके सिद्धान्तोंका यत्र तत्र उल्लेख | उन उल्लेखोंके आधार पर ही उनका परिचय, कार्य क्षेत्र, समयादि निरूपण किये जा सकते हैं। इनमें अनुमानका सहारा भी लिया जा सकता है, जो प्रमाणका एक भेद है जिसे असत्य नहीं माना जा सकता। निरुक्तकारोंके स्थानादि निरूपणमें उनकी भाषा एवं सिद्धान्तोंका पर्यवेक्षण ही एक मात्र साधन है। उनसे सम्बद्ध अन्यत्र प्राप्त वर्णन भी सहायक हो सकते हैं। निरूक्त एवं निघण्टु शब्दोंकी संख्या निश्चित रूपमें अभी भी नहीं प्राप्त हो सकी है। लगता है वेदकी विभिन्न शाखाओंसे सम्बद्ध अनेक निघण्टु एवं निरुक्त ग्रन्थ होंगे। इस प्रकारकाआभास कुछ प्राप्त निघण्टु एवं निरुक्त ग्रन्थोंके अध्ययन से मिलता है। सभी निघण्टु एवं निरुक्त ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। ५३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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