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________________ + नी अग्निः। यास्कके उपर्युक्त तीनों निर्वचन अर्थात्मक आधारसे तो युक्त हैं लेकिन ध्वन्यात्मक आधारसे उपयुक्त नहीं है। अग्नि शब्दके निर्वचन क्रममें यास्क कुछ आचार्योंके तत्सम्बन्धी मतोंका भी उल्लेख करते हैं अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्टीवि: नक्नोपयति न स्नेहयति३२ अर्थात् आचार्य स्थौलाष्टीवि के अनुसार अग्नि अक्नोपन होती है यह स्निग्ध नहीं करती रसोंको सुखाकर रूक्ष कर देती है। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दमें न • अ+ क्न = ग्न =अग्निः। आचार्य शाकपूणि: अग्नि शब्दको तीन आख्यातोंसे निष्पन्न मानते हैं- त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायत इति शाकपूणिः। इतात् अक्ताद्दग्धाद्वा नीतात्। स खल्वेतेरकारमादते गकारमनक्तेर्वा दहतेर्वा नीः परः।३२ अर्थात् इण् गतौ धातुसे अकार अंज् या दह् भष्मीकरणे धातुसे दकार तथा नीञ् धातुसे नी लेकर अग्नि बना अ+ग् + निः अग्निः प्रत्येक अक्षर में धातुओंका योग निर्वचनकी सूक्ष्मताका परिचायक है। कई धातुओंके योगसे शब्दका निर्वचन वृहदारण्यकोपनिष्द में भी प्राप्त होता है।३३ आचार्य सायण ने इसकी व्युत्पत्ति अगि गतौ धातुसे नि प्रत्यय जोड़ कर की है३४ यह भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे सर्वथा संगत है। व्याकरणके अनुसार भी अगि गतौ धातुसे नि प्रत्यय कर अग्नि: शब्द बनाया जा सकता है। (२०) देव :- इसका अर्थ होता है देवता। निरुक्तके अनुसार १ देवो दानाद्वा३२ अर्थात् यह शब्द दा दाने धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यजमानोंको अभीष्ट पदार्थ देते हैं या यजमान भी उन्हें हविष् आदि प्रदान करते हैं।३५ (२) दीपनाद्वा अर्थात् इस शब्दमें दीप् दीप्तौ धातुका योग है क्योंकि तेजोमय होनेके कारण वे प्रकाशित करते है|३६ (३) द्योतनाद्वा३२ अर्थात् इस शब्दमें धुत् दीप्तौ धातुका योग है क्योंकि वे स्वयं प्रकाशित होते हैं। ४. धुस्थानो भवतीतिवा३२ धु स्थानमें होनेके कारण देव कहलाते हैं सूर्यादि देवताकी उपस्थिति आकाशमें होनेके कारण धु स्थानीय देव कहलाया। यास्कके उपर्युक्त निर्वचनोंमें दा- देव, दीप-देव, द्युत्-देव तथा धु स्थान से देव माना गया है। ये सभी निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते हैं। ध्वन्यात्मकता की दृष्टिसे ये निर्वचन अपूर्ण हैं। यास्कके निर्वचनमें तीन धातुओंकी कल्पना अर्थात्मक संगतिके लिए ही प्राप्त हैं। आचार्य सायण देव शब्दमें दिव् धातुका योग मानते हैं।३७ व्याकरणके अनुसार दिव् धातुसे अच् प्रत्यय कर देव शब्द बनाया जा सकता है।३८ दिव धातसे देव शब्द मानना भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे भी संगत है। पाणिनीय धातु पाठमें दिव् धातुके क्रीड़ा, विजिगीषा व्यवहार, प्रकाश, प्रशंसा, आनन्द, मद, स्वप्न, कान्ति, गति आदि अर्थ होते हैं।३९ ४०३:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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