SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आधार पर इसका नामकरण हुआ है। शब्दानुकरण सिद्धान्त की मान्यता भाषा विज्ञानमें भी है। बहुत सारे शब्द शब्दानुकरणके अनुसार बने हैं। यह निर्वचन भाषा विज्ञान एवं निर्वचन प्रक्रिया के अनुरूप है। व्याकरण के अनुसार जज्झ शब्द करणे धातुसे जस् कर जज्झती: (पूर्व सवर्ण दीर्घ एकादेश) शब्द बनाया जा सकता है। (१०८) अप्रतिष्कुत :- इसका अर्थ होता है जिसका प्रतिकार न किया जा सके। निरुक्तके अनुसार- अप्रतिष्कुतोऽप्रतिष्कृतोऽप्रतिस्खलितोवा।५२ अर्थात् जो युद्ध भूमिमें शत्रुओं से मुख न मोड़े या जो रणस्थलमें स्खलित न हो। इसके अनुसार इस शब्दमें नञ्-अ + प्रति +स्कूञ् आप्रवणे धातुका योग है। अप्रतिस्खलित: के द्वारा मात्र अर्थ निर्देश किया गया है। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। द्वितीय निर्वचनका मात्र अर्थात्मक महत्व है। व्याकरणके अनुसार न अ+ प्रति +स्कुञ्+ क्त =अप्रतिस्कुतः शब्द बनाया जा सकता है। (१०९) शाशदान :- इसका अर्थ होता है- पुनः पुनः दबाता हुआ या मारता हुआ। निरुक्तके अनुसार-शासदानः शाशद्यमान:५२ अर्थात् शत्रुओंको दबाता हुआ। इसके अनुसार इस शब्दमें शद्लू शातने धातुका योग है। ध्वन्यात्मक दृष्टिसे यह निर्वचन पूर्ण उपयुक्त नहीं है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा। इस निर्वचनका अर्थात्मक महत्व है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग उक्त अर्थ में प्राय: नहीं देखा जाता। (११०) सृप्र :- इसका अर्थ होता है सर्पणशील, नमनशील, कोमल। निरुक्तके अनुसार १- सृप्रः सर्पणात्८७ अर्थात् इस शब्दमें सृप् सर्पणे धातुका योग है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा सर्पण करने वाला २- इदमपीतरत्सृप्रमेतस्मादेव। सर्पि तैलं वा८७ अर्थात् घृत एवं तैलका वाचक सृप्र शब्द भी इसी सर्पण क्रिया के कारण बनता है अर्थात् यह शब्द सृप सर्पणे धातुके योगसे ही निष्पन्न होता है। यास्कके निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा व्याकरणके अनुसार सृप् गतौ धातुसे क्रुन प्रत्यय कर सृप्रः शब्द बनाया जा सकता है। (१११) सुशिप्र :- इस शब्दका अर्थ भी नमनशील होता है। यह जबड़े या नासिकाका वाचक है। सुशिप्रम् की व्याख्या सृप्रः से ही हो जाती है अर्थात् इस शब्दमें भी सृपसर्पणे,गतौ धातुका योग है।निरुक्तके अनुसार सुशिप्रमेतेन व्याख्यातम्। शिप्रेहनू ३६५:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy