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________________ 2. “यत्प्रेषिता वरुणेनाच्छीमं समवल्गत तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्, तस्मादापो अनुष्ठन।।2 इस मंत्र में आपः शब्द व्याख्यात है। आप जलका वाचक है। आप्नोत् क्रियापदका सम्बन्ध आपः से है। प्राप्त करने के कारण आप कहलाया। इन्द्र ने उसे प्राप्त किया । इन्द्रः आप्नोत् से आपःका सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। अतः आपः शब्द में आप प्रापणे धातका योग है। आप्नोत क्रिया भी आप धातुसे ही निष्पन्न है। यास्कने भी आप प्रापणे धातुसे ही आपः शब्दका निर्वचन माना है। लेकिन ऋग्वेदमें आपः शब्दका सम्बन्ध पी पाने धातु से तथा पिन्व् धातुसे माना गया है। अथर्ववेदका निर्वचन ऋग्वेदके निर्वचनकी अपेक्षा अधिक तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक है। “एघोऽस्येधिषीय समिदसि समेधिषीय तेजोऽसि तेजोमयि धेहि ।। 65 इस मंत्रमें समिद् शब्द व्याख्यात है। समेधिषीय से समिद् का सम्बन्ध स्पष्ट है। आचार्य सायण समेधिषीय की व्याख्या दो रूपों में करते हैं - सम् +एध् वृद्धौधातुसे तथा सम्+इन्ध् दीप्तौधातुसे । अतः समिद् शब्द में एध्या इन्च् धातुका योग माना जायेगा। ऋग्वेदमें समिध शब्द सम् +इन्ध दीप्तौ धातु के योग से ही निष्पन्न माना गया है। यजुर्वेदमें भी इस शब्द का निर्वचन प्राप्त होता है। समिद् अग्निका वाचक है। अथर्ववेद का यह निर्वचन अन्य वेदके निर्वचनोंकी अपेक्षा अधिक विकसित माना जायेगा। 4. क्षुधामारं तृष्णामारमगोतामनपत्यताम् अपामार्ग त्वया वयं सर्वं तदपमृज्महे | 69 इस मंत्रमें अपामार्ग शब्द व्याख्यात है। अपामार्ग एक पौधा विशेषका नाम है, जिसका प्रयोग धार्मिक कृत्योंमें अनिष्ट निवारणके लिए किया जाता है। कृत्या तथा अभिचार कर्ममें इसका विशेष प्रयोग होता है। अपमृज्महे से अपामार्गका सम्बन्ध स्पष्ट है। यहां अप+मृज् धातुसे अपामार्ग का निर्वचन प्राप्त होता है। अप+मृज् से अपामार्गमें उपसर्गके अन्त्य स्वर का दीर्घ, धातुस्थ उपधा की वृद्धि, सम्प्रसारण एवं ज् का ग में परिवर्तन हुआ है। यह २९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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